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________________ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 ९. लोभ - मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्यादि विषयक इच्छा, मूर्छा ममत्व भाव एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं। १०. राग - माया और लोभ जिसमें अप्रकट रूप से विद्यमान हो ऐसा आसक्ति रूप जीव का. परिणाम राग कहलाता है। ११. द्वेष - क्रोध और मान जिसमें अप्रकट रूप से विद्यमान हो ऐसा अप्रीति रूप जीव का परिणाम द्वेष है। १२. कलह - लड़ाई, झगड़ा करना कलह है। १३. अभ्याख्यान - प्रकट रूप से अविद्यमान दोषों का आरोप लगाना (झूठा आल देना) अभ्याख्यान है। १४. पैशुन्य - पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना (चाहे उसमें हों या न हों) पैशुन्य है। १५. परपरिवाद - दूसरे की बुराई करना, निन्दा करना परपरिवाद है। १६. रति अरति - अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है वह रति है अथवा आरंभादि असंयम व प्रमाद में प्रीति को रति कहते हैं। प्रतिकूल विषयों के प्राप्त होने पर मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग पैदा होता है उसे अरति कहते हैं। तप संयम आदि में अप्रीति को अरति कहते हैं। शंका - रति अरति को एक पाप स्थान क्यों माना है ? समाधान - जीव को जब एक विषय में रति होती है तब दूसरे विषय में स्वतः अरति हो जाती है। यही कारण है कि एक वस्तु विषयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं इसीलिए दोनों को एक पाप स्थान गिना है। १७. माया मृषावाद - माया (कपट) पूर्वक झूठ बोलना माया मृषावाद है। दो दोषों के संयोग से यह पाप स्थान माना है। वेश बदल कर लोगों को ठगना ऐसा अर्थ भी किया जाता है। १८. मिथ्यादर्शन शल्य - श्रद्धा का विपरीत होना मिथ्या दर्शन है जैसे शरीर में चुभा हुआ शल्य (काँटा) सदा कष्ट देता है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन भी आत्मा को सदैव दुःखी बनाये रखता है इसीलिये इसे शल्य कहा है। उपरोक्त अठारह स्थानों से बांधा हुआ पाप बयासी प्रकार से भोगा जाता है। अठारह पापों के त्याग के लिए वेरमण और विवेक शब्द का प्रयोग हुआ है। वेरमण का अर्थ है - विरति (निवृत्ति) और विवेक का अर्थ त्याग है। एगा ओसप्पिणी। एगा सुसमसुसमा जाव एगा दुस्समदुस्समा। एगा उस्सप्पिणी। एगा दुस्समदुस्समा। जाव एगा सुसमसुसमा ॥७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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