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________________ श्री स्थानांग सूत्र ५. सुषमा सुखमय तीन कोटाकोटि सागरोपम परिमाण । ६. सुषम - सुषमा - एकान्तं सुखमय चार कोटाकोटि सागरोपम परिमाण । प्रत्येक अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल के इन छह-छह आरों का स्वभाव समान होने एक एक कहा है। कालचक्र अनादि अनन्त है, किन्तु उसके उतार-चढ़ाव की अपेक्षा से दो प्रधान भेद किये गये हैं। अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल । अवसर्पिणी काल में मनुष्य और तिर्यंचों की बल, बुद्धि, देहमान, आयु परिमाण आदि की तथा पुद्गलों में उत्तम वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि की क्रमशः हानि होती जाती है और उत्सर्पिणी काल में उनकी क्रमशः वृद्धि होती जाती है। इनमें प्रत्येक के छहछह भेद होते हैं। जो छह आरों के नाम से प्रसिद्ध है और जिनका नाम्मोल्लेख मूल सूत्रों में कर दिया गया है। अवसर्पिणी काल का पहला आरा अति सुखमय होता है। दूसरा आरा सुखमय, तीसरा आरा ज्यादा सुखमय और थोड़ा दुःख मय होता है, चौथा आरा दुःखमय और सुखमय होता है, पांचवां आरा दुःखमय और छठा आरा अति दुःखमय होता है । उत्सर्पिणी काल का क्रम इससे उल्टा होता है यथा पहला आरा अति दुःखमय, दूसरा दुःखमय, तीसरा दुःख सुखमय, चौथा आरा सुख दुःखमय, पांच सुखमय और छठा अति सुखमय होता है। । कर्मभूमि के पन्द्रह क्षेत्र होते हैं यथा - ५ भरत, ५ ऐरवत, ५ महाविदेह । इन में से ५ भरत और ५ ऐवत क्षेत्र में ही यह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल होता है । महाविदेह क्षेत्र में कालचक्र नहीं होता है किन्तु अवसर्पिणी काल के चौथे आरे सरीखे भाव सदा रहते हैं (चौथा आरा नहीं) । तीस अकर्म भूमि और छप्पन अन्तरद्वीप में भी काल चक्र नहीं होता है किन्तु देवकुरू, उत्तरकुरू में अवसर्पिणी के पहले आरे जैसे भाव होते हैं। इसी प्रकार हरिवास और रम्यक्वास दूसरे आरे जैसे भाव रहते हैं। हेमवय और हिरण्यवय तथा छप्पन अन्तरद्वीपों में तीसरे आरे जैसे भाव रहते हैं। वहाँ आरा तो होता ही नहीं है। २० - Jain Education International - एगा णेरइयाणं वग्गणा, एगा असुरकुमाराणं वग्गणा चउवीसदंडओ जाव वेमाणियाणं वग्गणा। एगा भव सिद्धियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वग्गणा, एगा भवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा । एगा सम्महिट्ठियाणं वग्गणा, एगा मिच्छहिट्ठियाणं वग्गणा एगासम्ममिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा । एगा सम्महिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा 00000000००००० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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