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________________ स्थान ४ उद्देशक २ ३२९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 उवसमणोपक्कमे - उपशमनोपक्रम, विप्परिणामणोवक्कमे - विपरिणामनोपक्रम, अप्पाबहुए - अल्पबहुत्व, संकमे - संक्रम, णिधत्ते - निधत्त, णिकाइए - निकाचित। भावार्थ - चार प्रकार का बन्धं कहा गया है यथा - प्रकृति बन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध, प्रदेशबन्ध । चार प्रकार का उपक्रम यानी जीव की शक्ति विशेष कहा गया है यथा - बन्धनोपक्रम, उदीरणोपक्रम, उपशमनोपक्रम, विपरिणामनोपक्रम । बन्धनोपक्रम चार प्रकार का कहा गया है यथा - प्रकृतिबन्धनोपक्रम, स्थितिबन्धनोपक्रम, अनुभावबन्धनोपक्रम, प्रदेशबन्धनोपक्रम । उदीरणोपक्रम चार प्रकार का कहा गया है यथा-प्रकृतिउदीरणोपक्रम, स्थितिउदीरणोपक्रम, अनुभावउदीरणोपक्रम, प्रदेशउदीरणोपक्रम। उपशमनोपक्रम चार प्रकार का कहा गया है यथा - प्रकृति उपशमनोपक्रम, स्थिति उपशमनोपक्रम, अनुभाव उपशमनोपक्रम, प्रदेश उपशमनोपक्रम । विपरिणामनोपक्रम चार प्रकार का कहा गया है यथा - प्रकृतिविपरिणामनोपक्रम, स्थितिविपरिणामनोपक्रम, अनुभाव विपरिणामनोपक्रम, प्रदेश विपरिणामनोपक्रम । चार प्रकार का अल्पबहुत्व कहा गया है यथा - कर्मों की प्रकृति की अपेक्षा अल्पबहुत्व, स्थिति की अपेक्षा अल्पबहुत्व, अनुभाव यानी कर्मविपाक की अपेक्षा अल्पबहुत्व, कर्मों के प्रदेशों की अपेक्षा अल्पबहुत्व । चार प्रकार का संक्रम कहा गया है यथा - प्रकृति संक्रम, स्थिति संक्रम, अनुभाव संक्रम, प्रदेश संक्रम । चार प्रकार का निधत्त कहा गया है यथा - प्रकृति निधत्त, स्थिति निधत्त, अनुभाव निधत्त, प्रदेश निधत्त। चार प्रकार का निकाचित कहा गया है यथा - प्रकृति · निकाचित, स्थिति निकाचित, अनुभाव निकाचित और प्रदेश निकाचित । विवेचन - बन्ध की व्याख्या और उसके भेद - जैसे कोई व्यक्ति अपने शरीर पर तेल लगा कर धूलि में लेटे, तो धूलि उसके शरीर पर चिपक जाती है। उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश रहे हुए हैं। वहीं के अनन्त-अनन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणु जीव के एक-एक प्रदेश के साथ बंध जाते हैं। कर्म और आत्मप्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं। जैसे दूध और पानी तथा आग और लोह पिण्ड परस्पर एक हो कर मिल जाते हैं। आत्मा के साथ कर्मों का जो यह सम्बन्ध होता है, वही बन्ध कहलाता है। बंध के चार भेद हैं - १. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बन्ध ३. अनुभाग बन्ध ४. प्रदेश बन्ध १. प्रकृति बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में जुदे-जुदे स्वभावों का अर्थात् शक्तियों का पैदा होना प्रकृति बन्ध कहलाता है। .. . २. स्थिति बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुये कर्म पुद्गलों में अमुक काल तक अपने स्वभावों का त्याग न करते हुए जीव के साथ रहने की काल मर्यादा को स्थिति बन्ध कहते हैं। ३. अनुभाग बन्ध - अनुभाग बन्ध को अनुभाव बन्ध और अनुभव बन्ध भी कहते हैं। जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में से इसके तरतम भाव का अर्थात् फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना अनुभाग बन्ध कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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