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श्री स्थानांग सूत्र
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४. प्रदेश बन्ध - जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म स्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेश बन्ध कहलाता है।
चारों बन्धों का स्वरूप समझाने के लिए मोदक (लड्डू) का दृष्टान्त दिया जाता है यथा -
जैसे सोंठ, पीपर, कालीमिर्च, आदि से बनाया हुआ मोदक वायु नाशक होता है। इसी प्रकार पित्त नाशक पदार्थों से बना हुआ मोदक पित का एवं कफ नाशक पदार्थों से बना हुआ मोदक कंफ का नाश करने वाला होता है। इसी प्रकार आत्मा से ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में से किन्हीं में ज्ञान गुण को आच्छादन करने की शक्ति पैदा होती है। किन्हीं में दर्शन गुण घात करने की। कोई कर्म - पुद्गल, आत्मा के आनन्द गुण का घात करते हैं। तो कोई आत्मा की अनन्त शक्ति का इस तरह भिन्न-भिन्न कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रकृतियों के बन्ध होने को 'प्रकृति बन्ध' करते हैं।
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जैसे कोई मोदक एक सप्ताह, कोई एक पक्ष, कोई एक मास तक निजी स्वभाव को रखते हैं। इसके बाद में छोड़ देते हैं अर्थात् विकृत हो जाते हैं। मोदकों की काल मर्यादा की तरह कर्मों की भी काल मर्यादा होती है। वही 'स्थिति बन्ध' है। स्थिति पूर्ण होने पर कर्म आत्मा से जुदे हो जाते हैं।
कोई मोदक रस में अधिक मधुर होते कोई कम । कोई रस में अधिक कटु होते हैं, कोई कम । इस प्रकार मोदकों में जैसे रसों की न्यूनाधिकता होती है। उसी प्रकार कुछ कर्म दलों में शुभ रस अधिक और कुछ में कम। कुछ कर्म दलों में अशुभ रस अधिक और कुछ में अशुभ रस कम होता है। इसी प्रकार कर्मों में तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम शुभाशुभ रसों का बन्ध होना रस बन्ध है । यही बन्ध 'अनुभाग बन्ध' और 'अनुभाव बन्ध' भी कहलाता है।
कोई मोदक परिमाण में दो तोले का, कोई पांच तोले और कोई पावभर का होता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कर्म दलों में परमाणुओं की संख्या का न्यूनाधिक होना 'प्रदेश बन्ध' कहलाता है ।
यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि जीव संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं से बने हुए कार्माण स्कन्धों को ग्रहण नहीं करता परन्तु अनन्तानन्त परमाणु वाले स्कन्ध को ग्रहण करता है ।
प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं। स्थिति बन्ध तथा अनुभाग बन्ध कषाय के निमित्त से बंधते हैं।
उपक्रम की व्याख्या और भेद -
उपक्रम का अर्थ आरम्भ है। वस्तु परिकर्म एवं वस्तु विनाश को भी उपक्रम कहा जाता है। उपक्रम के चार भेद हैं - १. बन्धनोपक्रम २. उदीरणोपक्रम ३. उपशमनोपक्रम ४. विपरिणामनोपक्रम |
१. बन्धनोपक्रम - कर्म पुद्गल और जीव प्रदेशों के परस्पर सम्बन्ध होने को बन्धन कहते हैं। उसके आरम्भ को बन्धनोपक्रम कहते हैं । अथवा बिखरी हुई अवस्था में रहे हुए कर्मों को आत्मा से सम्बन्धित अवस्था वाले कर देना बन्धनोपक्रम है।
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