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________________ ३०० श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कुशल मन की उदीरणा-प्रवृत्ति से और अकुशल मन के निरोध करने से जिसका मन काबू (वश) में है वह मनः प्रतिसंलीन है अथवा मन से निरोध करने वाला मनः प्रतिसंलीन है इसी प्रकार वचन, काया के विषय में जानना चाहिये। मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों के प्रति राग द्वेष को दूर करने वाला इन्द्रिय प्रतिसंलीन कहलाता है। दीन और अदीन चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - दीणे णाममेगे दीणे, दीणे णाममेगे. अदीणे, अदीणे णाममेगे दीणे, अदीणे णाममेगे अदीणे । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - दीणे णाममेगे दीण परिणए, दीणे णाममेगे अदीणपरिणए, अदीणे णाममेगे दीण परिणए, अदीण णाममेगे अदीण परिणए । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा- : दीणे णाममेगे दीणरूवे, दीणे णाममेगे अदीणरूवे, अदीणे णाममेगे दीणलवे, अदीण णाममेगे अदीणरूवे । एवं दीणमणे, दीणसंकप्पे, दीणपण्णे, दीणदिट्ठी, दीणसीलायारे, दीणववहारे । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - दीणे णाममेगे दीणपरक्कमे, दीणे णाममेगे अदीणपरक्कमे, अदीणे णाममेगे दीणपरक्कमे, अदीणे णाममेगे अदीणपरक्कमे । एवं सव्वेसिं चउभंगो भाणियव्यो । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - दीणे णाममेगें दीणवित्ती, दीणे णाममेगे अदीणवित्ती, अदीणे णाममेगे दीणवित्ती, अदीणे णाममेगे अदीणवित्ती । एवं दीणजाई, दीणभासी, दीणोमासी। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - दीणे णाममेगे दीणसेवी, दीणे णाममेगे अदीणसेवी, अदीणे णाममेगे दीणसेवी, अदीणे णाममेगे अदीणसेवी । एवं दीणे णाममेगे दीणपरियाए, दीणे णाममेगे दीणपरियाले, सव्वत्थ चउभंगो। कठिन शब्दार्थ-दीणे-दीन, अदीणे.- अंदीन, दीणपरिणए-दीन परिणत-दीन परिणाम, वाला, अदीण परिणए - अदीन परिणत-परिणामों से अदीन, दीणरूवे - दीन रूप वाला, दीणमणे - दीन मन वाला, दीण संकप्पे - दीन संकल्प (विचार) वाला, दीणपण्णे - दीन प्रज्ञा (बुद्धि) वाला, दीणदिट्ठीदीन दृष्टि वाला, दीणसीलायारे - दीन शील आचार वाला, दीणववहारे - दीन व्यवहार वाला, दीण परक्कमे - पराक्रम से दीन, दीण वित्ती- दीन वृत्तिवाला, दीणोभासी - दीनावभाषी, दीणपरियाए - दीन पर्याय वाला, दीणपरियाले - दीन परिवार वाला। भावार्थ - चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा - कोई एक पुरुष बाहर से दीन (गरीब) और अन्दर से भी दीन अथवा पहले दीन और पीछे भी दीन । कोई एक पुरुष बाहर से दीन किन्तु भीतर से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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