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________________ स्थान ४ उद्देशक २ २९९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 द्वादशांगी के बाहर के सूत्र अंग बाह्य कहलाते हैं। अंग बाह्य चार प्रज्ञप्तियाँ कही गयी हैं - १. चन्द्रप्रज्ञप्ति २. सूर्य प्रज्ञप्ति ३. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और ४. द्वीप सागर प्रज्ञप्ति। पांचवीं व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) है परन्तु वह अंग प्रविष्ट है अतः यहाँ चार ही प्रज्ञप्तियों का कथन किया गया है। ॥ इति चौथे स्थान का प्रथम उद्देशक समाप्त ।। चौथे स्थान का दूसरा उद्देशक प्रतिसंलीन और अप्रतिसंलीन - चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता तंजहा - कोहपडिसंलीणे, माणपडिसंलीणे, मायापडिसलीणे, लोभपडिसंलीणे । चत्तारि अपडिसंलीणा पण्णत्ता तंजहा - कोह अपडिसलीणे, जाव लोभ अपडिसंलीणे । चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता तंजहा - मणपडिसलीणे, वयपडिसंलीणे, कायपडिसंलीणे, इंदियपडिसलीणे । चत्तारि अपडिसंलीणा पण्णत्ता तंजहा - मण अपडिसंलीणे जाव इंदियअपडिसंलणे॥१४४॥ कठिन शब्दार्थ - पडीसंलीणा - प्रतिसंलीन-क्रोधादि का उपशमन करने वाले, अपडिसंलीणाअप्रतिसंलीन। भावार्थ - चार प्रतिसंलीन यानी क्रोधादि का उपशमन करने वाले पुरुष कहे गये हैं यथा - क्रोध प्रतिसंलीन यानी क्रोध का उपशमन करने वाला और उदय में आये हुए क्रोध को विफल करने वाला। इसी प्रकार मान प्रतिसंलीन माया प्रतिसंलीन और लोभ प्रतिसंलीन कह देने चाहिए। चार अप्रतिसंलीन कहे गये हैं यथा - क्रोध अप्रतिसंलीन यावत् मान अप्रतिसंलीन माया अप्रतिसंलीन और लोभ अप्रतिसंलीन। चार प्रतिसंलीन कहे गये हैं यथा - मन प्रतिसंलीन, वचन प्रतिसंलीन, काय प्रतिसंलीन और इन्द्रिय प्रतिसंलीन। चार अप्रतिसंलीन कहे गये हैं यथा - मन अप्रतिसलीन, यावत् इन्द्रिय अप्रतिसंलीन । विवेचन - क्रोध आदि का निरोध करने वाले पुरुष को प्रतिसंलीन कहते हैं। क्रोध के उदय का निरोध करना और उदय प्राप्त क्रोध को निष्फल करना क्रोध प्रतिसंलीन कहलाता है। इसी प्रकार मान प्रतिसंलीन, माया प्रतिसंलीन और लोभ प्रतिसंलीन के विषय में भी समझ लेना चाहिये। इससे विपरीत क्रोध आदि का निरोध नहीं करने वाले पुरुष अप्रतिसंलीन कहलाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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