________________
स्थान ४ उद्देशक १
२८३ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 पडिपुच्छइ, पुच्छइ, वागरेइ । चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तंजहा - सुत्तधरे णाममेगे णो अत्यधरे, अत्यधरे णाममेगे णो सत्तधरे॥१३५॥
कठिन शब्दार्थ - आवायभदे - आपात भद्र-पहली बार मिलने में अच्छे, संवासभइए - चिरकाल तक साथ रहने पर अच्छे, अप्पणो - अपनी आत्मा का, वजं - वर्ण्य, परस्स - दूसरे का, उदीरेइ - उदीरणा करता है, उवसामेइ - उपशांत करता है, अब्भुटेइ - अभ्युत्थान-स्वयं खड़ा होता है, वाएइ - वाचना देता है, पडिपुच्छइ - बार बार प्रश्न करता है, वागरेइ - उत्तर देता है, सुत्तधरे - सूत्रधर, अत्यधरे- अर्थधर । ।
भावार्थ - चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कितनेक पुरुष आपात भद्र यानी पहली बार मिलने में तो अच्छे होते हैं किन्तु चिरकाल तक साथ रहने पर अच्छे नहीं निकलते हैं । कितनेक पुरुष चिरकाल तक साथ रहने पर अच्छे निकलते हैं किन्तु पहले मिलने के समय अच्छे नहीं निकलते हैं । कितनेक पुरुष पहले मिलने के समय भी अच्छे निकलते हैं और चिर काल तक साथ रहने पर भी अच्छे ही निकलते हैं । कितनेक पुरुष न तो प्रथम मिलने के समय अच्छे होते हैं और न चिर काल तक साथ रहने पर ही अच्छे निकलते हैं । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष अपनी आत्मा का दोष देखता है किन्तु दूसरे का दोष नहीं देखता है । कोई एक पुरुष दूसरे का दोष देखता है किन्तु अपना दोष नहीं देखता है । कोई एक पुरुष अपना दोष भी देखता है और दूसरे का भी दोष देखता है। कोई एक पुरुष अपना भी दोष नहीं देखता और दूसरे का भी दोष नहीं देखता है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष अपना दोष प्रकट करता है किन्तु दूसरे का दोष प्रकट नहीं करता है। कोई एक पुरुष दूसरे का दोष प्रकट करता है किन्तु अपना दोष प्रकट नहीं करता है । कोई एक पुरुष. अपना भी दोष प्रकट करता है और दूसरे का भी दोष प्रकट करता है कोई एक पुरुष न तो अपना दोष प्रकट करता है और न दूसरे का दोष प्रकट करता है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष अपनी आत्मा के दोष को उपशान्त करता है किन्तु दूसरे के दोष को उपशान्त नहीं करता है । कोई एक पुरुष दूसरे के दोष को उपशान्त करता है किन्तु अपनी आत्मा के दोष को उपशान्त नहीं करता है । कोई एक पुरुष अपनी आत्मा के और दूसरे के दोनों के दोष को उपशान्त करता है। कोई पुरुष अपनी आत्मा के और दूसरे के दोनों के दोष को उपशान्त नहीं करता है। चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष स्वयं खड़ा होता है किन्तु दूसरे को खड़ा नहीं करता है, जैसे छोटी दीक्षा वाला साधु । कोई एक पुरुष स्वयं खड़ा नहीं होता है किन्तु दूसरों को खड़ा करता है, जैसे गुरु आदि । कोई स्वयं भी खड़ा होता है और दूसरों को भी खड़ा करता है, जैसे बीच की दीक्षा वाला साधु। कोई एक पुरुष स्वयं भी खड़ा नहीं होता है और दूसरों को भी खड़ा नहीं करता है, जैसे जिनकल्पी साधु अथवा अविनीत साधु । इसी प्रकार कोई एक पुरुष वन्दना करता है किन्तु
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org