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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्राणिवध से निवृत्त न होने से जीव यहीं पर अनेक दूषणों का शिकार होता है। उसके परिणाम इतने क्रूर हो जाते हैं कि वह लोक निन्दित स्वपुत्र वध जैसे जघन्य कृत्य भी कर बैठता है।
इसी प्रकार आस्रव से अर्जित पाप कर्मों से जीव चिर काल तक नरकादि नीच गतियों में परिभ्रमण करता हुआ अनेक अपायों (दुःखों) का भाजन होता है।
कायिकी आदि क्रियाओं में वर्तमान जीव इस लोक एवं परलोक में दुःखी होते हैं। ये क्रियाएँ संसार बढ़ाने वाली कही गई है। .
इस प्रकार राग द्वेष कषाय आदि के अपायों के चिंतन करने में मन को एकाग्र करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
इन दोषों से होने वाले कुफल का चिन्तन करने वाला जीव इन दोषों से अपनी आत्मा की रक्षा करने में सावधान रहता है एवं इससे दूर रहता हुआ आत्म कल्याण का साधन करता है।
३. विपाक विचय - शुद्ध आत्मा का स्वरूप ज्ञान, दर्शन, सुख आदि रूप है। फिर भी कर्म वश उसके निज गुण दबे हुए हैं। एवं वह सांसारिक सुख दुःख के द्वन्द्व में रही हुई चार गतियों में भ्रमण कर रही है। संपत्ति, विपत्ति, संयोग, वियोग आदि से होने वाले सुख दुःख जीव के पूर्वोपार्जित शुभाशुभं कर्म के ही फल हैं। आत्मा ही अपने कृत कर्मों से सुख दुःख पाता है। स्वोपार्जित कर्मों के सिवाय और कोई भी आत्मा को सुख दुःख देने वाला नहीं है। आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में कर्मों के भिन्न-भिन्न फल हैं। इस प्रकार कषाय एवं योग जनित शुभाशुभ कर्म प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध, प्रदेश बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता इत्यादि कर्म विषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाक . विचय धर्मध्यान है।
४. संस्थान विचय - धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य एवं उनकी पर्याय, जीव अजीव के आकार, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, लोक का स्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक, विमान, भवन आदि के आकार, लोक स्थिति, जीव की गति आगति, जीवन मरण आदि सभी सिद्धान्त के अर्थ का चिन्तन करे तथा जीव एवं उसके कर्म से पैदा किए हुए जन्म जरा एवं मरण रूपी जल से परिपूर्ण क्रोधादि कषाय रूप पाताल वाले, विविध दुःख रूपी नक्र मकर से भरे हुए अज्ञान रूपी वायु से उठने वाली, संयोग वियोग रूप लहरों सहित इस अनादि अनन्त संसार सागर का चिन्तन करे। इस संसार सागर को तिराने में समर्थ, सम्यग्दर्शन रूपी मजबूत बन्धनों वाली, ज्ञान रूपी नाविक से चलाई जाने वाली चारित्र रूपी नौका है। संवर से निश्छिद्र, तप रूपी पवन से वेग को प्राप्त, वैराग्य मार्ग पर रही हुई, एवं अपध्यान रूपी तरंगों से न डिगने वाली बहुमूल्य शील रत्न से परिपूर्ण नौका पर चढ़ कर मुनि रूपी व्यापारी शीघ्र ही बिना विघ्नों के निर्वाण रूपी नगर को पहुंच जाते हैं। वहाँ पर वे अक्षय, अव्याबाध, स्वाभाविक, निरुपम सुख पाते हैं। इत्यादि रूप से सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों के विस्तार वाले, सब नय समूह रूप
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