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स्थान ४. उद्देशक १
२६९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 सिद्धान्तोक्त अर्थ के चिन्तन में मन को एकाग्र करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। जैसा कि भूधरदास जी कृत बारह भावनाओं के दोहों में कहा है कि -
चौदह राजु उतंग नभ, लोक घुरुष संठान। तामें जीव अनादितें, भरमत है बिन ज्ञान॥
अर्थ - इस लोक का आकार नाचते हुए भोपे के समान है। यह चौदह राजु परिमाण ऊंचा है मेरे जीव ने इन चौदह राजुओं में से एक भी आकाश प्रदेश खाली नहीं छोडा है अर्थात् मेरे जीव ने चौदह राजु के लोकाकाशों में सर्वत्र जनम मरण किया है। अब इस मेरे जीव को थकान आ जाना चाहिए और इसका परिभ्रमण मिट जाना चाहिए ऐसा चिन्तन करना लोक संस्थान विचय नामक धर्म ध्यान है। यह भावना शिवराज ऋषि ने भाई थी।
धर्मध्यान के चार लिङ्ग(चिह्न) - १. आज्ञा रुचि २. निसर्ग रुचि ३. सूत्र रुचि ४. अवगाढ़ रुचि (उपदेश रुचि) ..
१. आज्ञा रुचि - सूत्र में प्रतिपादित अर्थों पर रुचि धारण करना आज्ञा रुचि है।
२. निसर्ग रुचि - स्वभाव से ही बिना किसी उपदेश के जिनभाषित तत्त्वों पर श्रद्धा करना निसर्ग रुचि है। . . ३. सूत्र रुचि - सूत्र अर्थात् आगम द्वारा वीतराग प्ररूपितं द्रव्यादि पदार्थों पर श्रद्धा करना सूत्र रुचि है।
४. अवगाढ़ रुचि (उपदेश रुचि) - द्वादशाङ्ग का विस्तारपूर्वक ज्ञान करके जो जिन प्रणीत भावों पर श्रद्धा होती है वह अवगाढ़ रुचि है। अथवा साधु के समीप रहने वाले को साधु के सूत्रानुसारी उपदेश से जो श्रद्धा होती है। वह अवगाढ़ रुचि (उपदेश रुचि) है।
तात्पर्य यह है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्व ही धर्म ध्यान का लिङ्ग (चिह्न) है।
जिनेश्वर देव एवं साधु मुनिराज के गुणों का कथन करना, भक्तिपूर्वक उनकी प्रशंसा और स्तुति करना, गुरु आदि का विनय करना, दान देना, श्रुत शील एवं संयम में अनुराग रखना-ये धर्मध्यान के चिह्न हैं । इनसे धर्मध्यानी पहचाना जाता है। ..धर्मध्यान रूपी प्रासाद (महल) पर चढ़ने के चार आलम्बन - १. वाचना २. पृच्छना ३. परिवर्तना ४. अनुप्रेक्षा .. १. वाचना - निर्जरा के लिए शिष्य को सूत्र आदि पढ़ाना वाचना है।
२. पृच्छना - सूत्र आदि में शङ्का होने पर उसका निवारण करने के लिए गुरु महाराज से पूछना पृच्छना है। ___३. परिवर्तना - पहले पढ़े हुए सूत्रादि भूल न जाए इसलिए तथा निर्जरा के लिए उनकी आवृत्ति करना, अभ्यास करना परिवर्तना है।
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