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स्थान ४ उद्देशक १
परिणाम वाला रौद्रध्यानी दूसरे के दुःख से प्रसन्न होता है। ऐहिक एवं पारलौकिक भय से रहित होता है। उसके मन में अनुकम्पा भाव लेशमात्र भी नहीं होता। अकार्य करके भी इसे पश्चाताप नहीं होता । पाप करके भी वह प्रसन्न होता है।
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धर्मध्यान के चार भेद - १. आज्ञा विचय २. अपाय विचय ३. विपाक विचयं ४. संस्थान
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विचय |
१. आज्ञा विचय - सूक्ष्म तत्त्वों के उपदर्शक होने से अति निपुण, अनादि अनन्त, प्राणियों के वास्ते हितकारी, अनेकान्त का ज्ञान कराने वाली, अमूल्य, अपरिमित, जैनेतर प्रवचनों से अपराभूत, महान् अर्थवाली, महाप्रभावशाली एवं महान् विषय वाली, निर्दोष, नयभंग एवं प्रमाण से गहन, अतएव अकुशल जनों के लिये दुर्ज्ञेय ऐसी जिनाज्ञा (जिन प्रवचन) को सत्य मान कर उस पर श्रद्धा करे एवं उसमें प्रतिपादित तत्त्व के रहस्य को समझाने वाले, आचार्य महाराज के न होने से, ज्ञेय की गहनता से अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से और मति दौर्बल्य से जिन प्रवचन प्रतिपादित तत्त्व सम्यग् रूप से समझ में न आवे अथवा किसी विषय में हेतु उदाहरण के संभव न होने से वह बात समझ में न आवे तो यह विचार करे कि ये वचन वीतराग, सर्वज्ञ भगवान् श्री जिनेश्वर द्वारा कथित हैं। इसलिए सर्व प्रकारेण सत्य ही है। इसमें सन्देह नहीं। अनुपकारी जन के उपकार में तत्पर रहने वाले, जगत् में प्रधान, त्रिलोक एवं त्रिकाल के ज्ञाता, राग द्वेष के विजेता श्री जिनेश्वर देव के वचन सत्य ही होते हैं क्योंकि उनके असत्य कथन का कोई कारण ही नहीं है। इस तरह भगवद् भाषित प्रवचन का चिंतन तथा मनन करना एवं गूढ़ तत्त्वों के विषयों में सन्देह न रखते हुए उन्हें दृढ़ता पूर्वक सत्य समझना और वीतराग के वचनों में मन को एकाग्र करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है।
२. अपाय विचय - राग द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव एवं क्रियाओं से होने वाले ऐहिक और पारलौकिक कुफल और हानियों का विचार करना । जैसे कि महाव्याधि से पीड़ित पुरुष को अपथ्य अन्न की इच्छा जिस प्रकार हानिप्रद है । उसी प्रकार प्राप्त हुआ राग भी जीव के लिए दुःखदायी होता है। प्राप्त हुआ द्वेष भी प्राणी को उसी प्रकार सन्तप्त कर देता है। जैसे कोटर (वृक्ष की खोखाल) में रही हुई अग्नि वृक्ष को शीघ्र ही जला डालती है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग देव ने दृष्टि राग आदि भेदों वाले राग का फल परलोक में दीर्घ संसार बतलाया है । द्वेषरूपी अग्नि से संतप्त जीव इस लोक में भी दुःखित रहता है और परलोक में भी वह पापी नरकाग्नि में जलता है । वश में न किये हुए क्रोध और मान एवं बढ़ते हुए माया और लोभ-ये चारों कषाय संसार रूपी वृक्ष के मूल का सिंचन करने वाले हैं। अर्थात् संसार को बढ़ाने वाले हैं। प्रशम आदि गुणों से शून्य एवं मिथ्यात्व से मूढ़ मति वाला पापी जीव इस लोक में ही नरक सदृश दुःखों को भोगता है। क्रोध आदि सभी दोषों की अपेक्षा अज्ञान अधिक दुःखदायी है, क्योंकि अज्ञान से आच्छादित जीव अपने हिताहित को भी नहीं पहिचानता ।
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