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________________ २६६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और वेदना के निमित्त से ये चार चिह्न आर्तध्यानी के होते हैं। रौद्रध्यान के चार प्रकार - १. हिंसानुबन्धी २. मृषानुबन्धी ३. चौ-नुबन्धी ४. संरक्षणानुबन्धी। १. हिंसानुबन्धी - प्राणियों को चाबुक, लता आदि से मारना, कील आदि से नाक वगैरह बींधना, रस्सी जंजीर आदि से बांधना, अग्नि में जलाना, डाम लगाना, तलवार आदि से प्राण वध करना अथवा उपरोक्त व्यापार न करते हुए भी क्रोध के वश होकर निर्दयता पूर्वक निरन्तर इन हिंसाकारी व्यापारों को करने का चिन्तन करना हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है। २. मृषानुबन्धी - मायावी-दूसरों को ठगने की प्रवृत्ति करने वाले तथा छिप कर पापाचरण करने वाले पुरुषों के अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, असत् अर्थ का प्रकाशन, सत् अर्थ का अपलाप एवं एक के स्थान पर दूसरे पदार्थ आदि का कथन रूप असत्य वचन एवं प्राणियों के उपघात करने बाले वचन कहना या कहने का निरन्तर चिन्तन करना मृषानुबन्धी रौद्रध्यान है। ३. चौर्यानुबन्धी - तोव क्रोध एवं लोभ से व्यग्र चित्त वाले पुरुष की प्राणियों के उपघात अनार्य काम जैसे - पर द्रव्य हरण आदि में निरन्तर चित्त वृति का होना चौ-नुबन्धी रौद्रध्यान है। ४. संरक्षणानुबन्धी - शब्दादि पांच विषय के साधन रूप धन की रक्षा करने की चिन्ता करना, एवं न मालूम दूसरा क्या करेगा, इस आशंका से दूसरों का उपघात करने की कषायमयी चित्त वृत्ति रखना संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है। ___ हिंसा, मृषा, चौर्य, एवं संरक्षण स्वयं करना दूसरों से कराना, एवं करते हुए की अनुमोदना (प्रशंसा) करना इन तीनों कारण विषयक चिन्तना करना रौद्रध्यान है। रागद्वेष एवं मोह से आकुल जीव के यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान होता है। यह ध्यान संसार बढ़ाने वाला एवं नरक गति में ले जाने वाला होता है। रौद्रध्यान के चार लक्षण - १. ओसन्न दोष २. बहुदोष (बहुलदोष), ३. अज्ञान दोष (नानादोष) ४. आमरणान्त दोष। १. ओसन्न दोष - रौद्रध्यानी हिंसादि से निवृत्त न होने से बहुलता पूर्वक हिंसादि में से किसी एक में प्रवृत्ति करता है। यह ओसन्न दोष है। २. बहुल दोष - रौद्रध्यानी सभी हिंसादि दोषों में प्रवृत्ति करता है। यह बहुल दोष है। ... ३. अज्ञान दोष - अज्ञान से कुशास्त्र के संस्कार से नरकादि के कारण अधर्म स्वरूप हिंसादि में धर्म बुद्धि से उन्नति के लिए प्रवृत्ति करना अज्ञान दोष है। अथवा - नानादोष - विविध हिंसादि के उपायों में अनेक बार प्रवृत्ति करना नानादोष है। . ४. आमरणान्त दोष - मरण पर्यन्त क्रूर हिंसादि कार्यों में अनुताप (पछतावा) न होना एवं हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना आमरणान्त दोष है। जैसे काल सौकरिक क्साई। कठोर एवं संक्लिष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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