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________________ स्थान ४ उद्देशक १ २४९ संयम का पालन किया। घोर तप और घोर वेदना को सहन किये बिना ही मोक्ष को प्राप्त हुए। यह पहली अन्तक्रिया है यानी यह अन्त क्रिया का पहला भेद है। ___ इसके बाद अब दूसरी अन्तक्रिया का कथन किया जाता है। यथा - कोई बहुत कर्मों वाला जीव परभव से आकर मनुष्य भव में उत्पन्न होता है। वह मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करता है और वह संयमयुक्त, संवरयुक्त यावत् उपधानादि तप युक्त दुःखों के कारणभूत कर्मों का क्षय करने में उद्यम करने वाला और शुभध्यानादि रूप आभ्यन्तर तप करने वाला होता है। उस पुरुष को तथाप्रकार का घोर तप और तथाप्रकार की घोर वेदना होती है। ऐसा पुरुष अल्प काल तक प्रव्रज्या का पालन करके सिद्ध हो जाता है यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है। जैसे कि गजसुकुमाल मुनि ने किया था। श्री कृष्ण वासुदेव के छोटे भाई श्री गजसुकुमाल ने बाईसवें तीर्थङ्कर भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षा अङ्गीकार कर उसी दिन श्मशान में कायोत्सर्ग किया था। पूर्वभव के बैर के कारण सोमिल ब्राह्मण ने उनके सिर पर जाज्वल्यमान अंगारे रख दिये जिससे उन्हें अत्यन्त तीव्र वेदना उत्पन्न हुई। उसे समभाव पूर्वक सहन करके, अल्प समय तक प्रव्रज्या का पालन करके मोक्ष में गये। यह दूसरी अन्तक्रिया है। - इसके पश्चात् अब तीसरी अन्तक्रिया का वर्णन किया जाता है। यथा- कोई बहुकर्मी जीव भवान्तर से आकर मनुष्य भव में उत्पन्न होता है। वह मुण्डित होकर गृहस्थावास छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करता है। सारा वर्णन दूसरी अन्तक्रिया के समान जान लेना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बहुत लम्बे समय तक प्रव्रज्या का पालन करके सिद्ध होता है। यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। जैसे कि समुद्र पर्यन्त चार दिशाओं का स्वामी चक्रवर्ती राजा सनत्कुमार। सनत्कुमार चक्रवर्ती का रूप अत्यन्त सन्दर था। एक वक्त प्रथम देवलोक के स्वामी शक्रेन्द्र ने उनके रूप की प्रशंसा की। इस प्रशंसा को सहन न कर सकने के कारण दो देव परीक्षा करने के लिये मनुष्य लोक में आये और सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास पहुंचे और उनके रूप को देखकर प्रशंसा करने लगे उस समय सनत्कुमार चक्रवर्ती वस्त्र आदि उतार कर स्नानागार की ओर स्नान करने के लिये जा रहे थे। इसलिये उन्होंने देवों से कहा कि अभी मेरा रूप क्या देख रहे हो? जब मैं स्नानादि करके वस्त्र आभूषणों से अलंकृत होकर सिंहासन पर बैतूं तब मेरा रूप देखना। तदनुसार वे स्नानादि करके वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर सिंहासन पर बैठे तब उन दोनों देवों को वापिस बुलाया गया। तब वे चक्रवर्ती के रूप को देखकर सिर हिलाकर माथा धुनने लगे तब चक्रवर्ती ने इसका कारण पूछा तब देवों ने कहा कि जैसा रूप हमनें पहले देखा था अब वैसा नहीं रहा है क्योंकि शरीर में व्याधियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। परीक्षा करने पर चक्रवर्ती को भी वैसा ही भान हुआ। तब शरीर आदि की अनित्यता जानकर उन्होंने तुरन्त दीक्षा अङ्गीकार की। शरीर में सात रोग पैदा हो गये यथा-१. कण्डू(तीव्र खुजली) २. ज्वर ३. खांसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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