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________________ २४८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 संवर युक्त, समाहिबहुले - समाधि युक्त, लूहे - रूक्ष, तीरट्ठी - तीरार्थी-संसार समुद्र के पार जाने की इच्छा वाला, उवहाणवं- उपधानादि तप युक्त, दुक्खक्खवे - दुःख का क्षय करने में उद्यम करने वाला, दीहेणं - दीर्घ काल तक, परियाएणं - प्रव्रज्या का पालन करके, महाकम्मे - बहुकर्मी, चाउरंतचक्कवट्टी - चारों दिशाओं का अन्त करने वाला चक्रवर्ती, णिरुद्धेणं - निरुद्ध अर्थात् अल्प काल तक। ___ भावार्थ - चार अन्तक्रियाएं यानी जन्ममरण से छूट कर इस संसार का अन्त करने वाली क्रियाएं कही गई हैं यथा - १. कोई जीव विशिष्ट तप और परीषहादि जनित वेदना सहन नहीं करता किन्तु लम्बे समय तक प्रव्रज्या का पालन कर मोक्ष को प्राप्त होता है। २. कोई जीव विशिष्ट तप और वेदना को सहन करके थोड़े समय तक प्रव्रज्या का पालन करके मोक्ष को प्राप्त होता है। ३. कोई जीव विशिष्ट तप और वेदना को सहन करके और लम्बे समय तक प्रव्रज्या का पालन करके मोक्ष को प्राप्त करता है। ४. कोई जीव विशिष्ट तप और वेदना को सहन न करके और थोड़े समय तक ही प्रव्रज्या का पालन करके मोक्ष को प्राप्त करता है । ये चार प्रकार की अन्तक्रियाएं हैं। ___चार अन्तक्रियाओं में यह पहली अन्तक्रिया है। यथा - कोई हलुकर्मी जीव देवलोकादि से चव कर मनुष्य भव में आता है फिर वह मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करता है और वह संयम युक्त, संवरयुक्त, समाधियुक्त, रूक्ष यानी सांसारिक स्नेह रहित, संसार समुद्र के पार जाने की इच्छा वाला उपधानादि तप युक्त, दुःख के कारणभूत कर्मों का क्षय करने में उद्यम करने वाला और शुभध्यान रूपी आभ्यन्तर तप करने वाला होता है। उस पुरुष को तथाप्रकार का यानी अत्यन्त घोर तप नहीं करना पड़ता है और तथाप्रकार की यानी अत्यन्त घोरं वेदना भी सहन नहीं करनी पड़ती है। ऐसा पुरुष लम्बे समय तक प्रव्रज्या का पालन करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, सकल कर्मों का क्षय करके शीतलीभूत हो जाता है और सब दुःखों का अन्त कर देता है, जैसे कि समुद्र पर्यन्त चारों दिशाओं का स्वामी चक्रवर्ती राजा भरत महाराज। ये पूर्वभव में हलुकर्मी होकर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए थे। वहाँ से चव कर राजा ऋषभदेव की रानीसुमंगला के गर्भ में आये और समय पूर्ण होने पर चक्रवर्ती पद को प्राप्त हुए भगवान् ऋषभदेव के मोक्ष जाने के बाद पांच लाख पूर्व तक चक्रवर्ती पद का उपभोग किया चक्रवर्ती पद में रहते हुए भी विरक्ति की ओर झुकाव था। एक वक्त स्नान करके वस्त्र आभूषणों से अलंकृत होकर आदर्श भवन (चक्रवर्ती के सब महलों में सर्वोत्कृष्ट जिसमें हीरा पन्ना आदि जड़े हुए थे इस कारण कांच की तरह जिसमें शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ता था) में गये वहाँ रत्न सिंहासन पर बैठे। बैठे-बैठे शरीर और सर्व पदार्थों की अनित्यता का विचार करने लगे (अनित्य भावना भाई भरतजी) सब पदार्थों की अनित्यता का चिंतन करते हुए परिणामों की विशुद्धता के कारण क्षपक श्रेणी पर चढ़कर केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। फिर एक लाख पूर्व तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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