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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ २३९ 000000०००००००००००००00000000000000000000000000000000 तओ ठाणा ववसियस्स हियाए जाव अणुगामियत्ताए भवंति तंजहा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिए णिक्कंखिए जाव णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सहहइ पत्तियइ रोएइ से परीसहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवइ, णो तं परीसहा अभिमुंजिय अभिमुंजिय अभिभवंति, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचहिं महव्वएहिं णिस्संकिए णिक्कंखिए जाव परीसहे अभिमुंजिय अभिमुंजिय अभिभवइ, णो तं परीसहा अभिमुंजिय अभिजुंजिय अभिभवंति, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं हिस्संकिए जाव परीसहे अभिजुंजिय अभिमुंजिय अभिभवइ, णोतं परीसहा अभिमुंजिय अभिमुंजिय अभिभवंति॥१२१॥ .. कठिन शब्दार्थ - अव्ववसियस्स - अव्यवसित-निश्चय रहित अथवा पराक्रम न करने वाले के लिए, अहियाए - अहित के लिये, असुहाए - असुख के लिये, अखमाए - अक्षमा के लिये, अणिस्सेसाए - अनिःश्रेयस-अकल्याण के लिये, अणाणुगामियत्ताए- अशुभानुबंध के लिए, णिग्गंथेनिग्रंथं, पावयणे- प्रवचनों में, भेयसमावण्णे - भेद को प्राप्त, कलुससमावण्णे - कलुषता को प्राप्त, सदहइ - श्रद्धा करता है, पत्तियइ - प्रतीति करता है, रोएइ - रुचि करता हैं, अभिजुंजिय - प्राप्त हो कर, अभिभवंति - अभिभूत (पराजित) कर देते हैं, णिस्संकिए - शंका रहित, णिक्कंखिए- परमत की वांच्छा रहित। भावार्थ - अव्यवसित यानी प्रवचनों में निश्चय रहित अथवा पराक्रम न करने वाले साधु के लिए तीन स्थान अहित, असुख अथवा अशुभ, अक्षमा, अनिःश्रेयस यानी अकल्याण और अशुभानुबन्ध के लिए होते हैं यथा - मुण्डित होकर गृहस्थावास से निकल कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करने वाला साधु निर्ग्रन्थ प्रवचनों में शङ्का करे कांक्षा यानी अन्यमत की वांच्छा करे, वितिगिच्छा यानी धर्मक्रिया के फल में सन्देह करे अथवा त्याग वृत्ति के कारण साधु साध्वी के मैले कपड़े और मलिन शरीर को देखकर घृणा करे, भेद को प्राप्त हो अर्थात् यह वस्तु तत्त्व ऐसा है अथवा ऐसा नहीं है इस प्रकार की भेद बुद्धि रखे, कलुषता को प्राप्त हो अर्थात् यह वस्तु तत्त्व ऐसा नहीं हैं इस प्रकार कलुषित बुद्धि रखे तथा निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा न रखे, प्रतीति न रखे, रुचि न रखे ऐसे साधु को परीषह प्राप्त होकर वे परीषह उसे अभिभूत (पराजित) कर देते हैं किन्तु वह साधु प्राप्त हुए परीषहों का अभिभव नहीं कर सकता अर्थात् परीषह उसे पराजित कर देते हैं किन्तु वह परीषहों को पराजित नहीं कर सकता हैं। मुण्डित होकर गृहस्थावास से निकल कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करके पांच महाव्रतों में शंका रखे यावत् कलुषता को प्राप्त हो और पांच महाव्रतों पर श्रद्धा न रखे यावत् रुचि न रखे तो परीषहों को प्राप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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