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________________ श्री स्थानांग सूत्र अविरति की अपेक्षा जीव को "बाल" कहा जाता है। उसका मरण "बाल मरण" कहलाता है।. लेश्या की अपेक्षा बाल मरण के तीन भेद हैं। जो ज्ञानवान है विवेकी है ऐसा चारित्र संपन्न संयमी, पण्डित कहलाता है। कहा भी है 'विरई पडुच्च पंडिए' अर्थात् महाव्रती पण्डित कहलाता है। लेश्या की अपेक्षा पण्डित मरण के भी तीन भेद हैं- जो साधक न तो पूर्णतया विरक्त है और न पूर्णतया अविरक्त ऐसे विरताविरत श्रावक को बालपंडित कहते हैं। कहा भी है- "विरया विरई पंडुच्च बालपंडिए आहिज्ज" श्रावक धर्म की पालना करते हुए उसका जो मरण होता है उसे बाल पंडित मरण कहते हैं। श्या की अपेक्षा बाल पंडित मरण के भी तीन भेद हैं। २३८ भगवती सूत्र में अन्तिम दो मरण के विषय में इस प्रकार पाठ आया है - "से णूणं भंते ! . कण्हलेसे णीललेसे जाव सुक्कलेसे भवित्ता काउलेसेसु णेरइएस उववज्जइ ? हंता गोयमा ! से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! लेसाठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा काउलेस्सं परिणमइ परिणमइत्ता काउलेसेसु णेरइएस उववज्जइ । प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्ण लेश्या, नील लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या वाला होकर कापोत लेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उत्तर - हे गौतम ! हाँ होता है । हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है ? हे गौतम संक्लिश्यमान अथवा विशुद्धमान लेश्या के स्थान कापोत लेश्या में परिणमते हैं । कापोत लेश्या में परिणत होकर जीव कापोत लेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। पण्डितमरण में संक्लिश्यमान लेश्या नहीं होती हैं, अवस्थित और वर्द्धमान लेश्याएं होती हैं। इसलिए पण्डितमरण के वास्तविक दो ही भेद हैं। तीन भेद तो केवल कथन मात्र हैं। बालपण्डितमरण में संक्लिश्यमान और पर्यवजात लेश्या का निषेध है। सिर्फ अवस्थित लेश्या पाई जाती है। इसलिए बालपण्डितमरण का वास्तव में एक ही भेद है। तीन भेद तो केवल कथन मात्र हैं। तओ ठाणा अव्ववसियस्स अहियाए असुहाए अखमाए अणिस्साए अणाणुगामियत्ताए भवंति तंजहा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिए कंखिए विइगिच्छिए भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहइ णो पत्तियइ णो रोएइ तं परीसहा अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवंति, णो से परीसहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवइ, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए पंचहिं महव्वएहिं संकिए जाव कलुससमावण्णे पंच महव्वयाइं णो सद्दहइ जाव णो से परीसहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवइ । से मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवणिकाएहिं जाव अभिभवइ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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