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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 होकर वह अभिभूत हो जाता है। मुण्डित होकर गृहस्थवास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करने वाला साधु छह जीव निकाय के विषय में शंका रखे कलुषता को प्राप्त हो और उन पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि न रखे तो वह परीषहों से अभिभूत हो जाता है। अर्थात् वह परीषहों से पराजित हो जाता है।
___ व्यवसित यानी जिन प्रवचनों में निश्चय रखने वाले एवं पराक्रम करने वाले साधु के लिए तीन स्थान हित सुख अथवा शुभ, क्षमा, कल्याण और शुभानुबन्ध के लिए होते हैं यथा - मुण्डित होकर गृहस्थवास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करने वाला साधु निर्ग्रन्थ प्रवचनों में शंका न रखे, कांक्षा यानी अन्यमत की वांच्छा न रखे यावत् कलुषता को प्राप्त न हो किन्तु निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा रखे तो वह परीषहों को प्राप्त होकर परीषहों का अभिभव कर देता है किन्तु प्राप्त हुए परीषह उसका अभिभव नहीं कर सकते हैं अर्थात् वह परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता हैं किन्तु परीषह उस पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। मुण्डित होकर गृहस्थावास से निकल कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करने वाला साधु पांच महाव्रतों में शंका न रखे, परमत की वांच्छा न करे यावत् उन पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि रखे तो वह साधु परीषहों को प्राप्त करके उनका अभिभव कर देता है किन्तु परीषह उसको प्राप्त होकर उसका अभिभव नहीं कर सकते हैं अर्थात् वह परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता है किन्तु परीषह उस पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़ कर प्रव्रज्या अङ्गीकार करने वाला साधु छह जीव निकायों में शंका न रखे यावत् उन पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि रखे तो वह साधु .परीषहों को प्राप्त करके उनका अभिभव कर देता है किन्तु परीषह उसे प्राप्त होकर उसका अभिभव नहीं कर सकते हैं अर्थात् वह पुरुष परीषहों को समभाव पूर्वक सहन कर उन पर विजय प्राप्त कर लेता है किन्तु परीषह उस पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ___ एगमेगा णं पुढवी तिहिं वलएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता तंजहा - घणोदहिवलएणं घणवायवलएणं तणुवायवलएणं। णेरइया णं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजंति, एगिदियवजं जाव वेमाणियाणं॥१२२॥
कठिन शब्दार्थ - वलएहिं - वलयों से, सव्वओ समंता - चारों तरफ दिशाओं और विदिशाओं में, संपरिक्खित्ता - वेष्टित, तिसमइएणं - तीन समय की, विग्गहेणं - विग्रह गति करके।
भावार्थ - रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथ्वी चारों तरफ दिशाओं और विदिशाओं में घनोदधि वलय घनवातवलय और तनुवातवलय इन तीन वलयों से वेष्टित हैं। नैरयिक जीव उत्कृष्ट तीन समय की विग्रह गति करके फिर अपने उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर वैमानिक देवों तक सभी दण्डक के जीव उत्कृष्ट तीन समय की विग्रह गति करके अपने उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होते हैं।
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