________________
श्री स्थानींग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 अनेक वाचनाएँ हुई। ६. वाचक मुख्य श्री देवर्द्धिगणी (जो कि एक पूर्व ज्ञान के धारी थे) क्षमा क्षमण की अध्यक्षता में वीर निर्वाण के ९८० वर्षों के बाद वलभीपुरी (सौराष्ट्र) में अन्तिम वाचना हुई और उस वाचना को पुस्तक रूप में लिपिबद्ध किया गया। फिर उनसे जो नकलें उतारी गई। उन पुस्तकों में कई जगह अशुद्धि रह गई ७. सूत्रों का अर्थ अति गम्भीर है तथा ८. कहीं-कहीं आचार्यों में मतभेद भी रहा है इत्यादि अनेक कारणों से टीका लिखने में अशुद्धियाँ रह सकती हैं। इसलिए जो अर्थ मैंने (अभयदेव ने) लिखा वही ठीक है ऐसा मेरा आग्रह नहीं है, किन्तु जो अर्थ वीतराम भगवन्त के सिद्धान्त के अनुसार और अनुकूल हो वहीं अर्थ ग्रहण करना चाहिए। और मेरे पर कृपा करके विद्वान पुरुषों को संशोधन कर लेना चाहिए इस विषय में मुझे किसी प्रकार से भी क्षमा नहीं करना चाहिए। क्योंकि मैंने जो लिखा वही सही है, ऐसा मेरा आग्रह नहीं है। उत्सूत्र प्ररूपणा महाभयंकर पाप है। महा मिथ्यात्व है, इस विषय में अपने समय के महान योगी अध्यात्म पुरुष श्री आनंदघनजी ने आनंदघन चौवीसी में चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है यथा -
पाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जीसां, धर्म नहीं कोई जग सूत्र सरिखो; सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेह- शुद्ध चारित्र परिखो धार। धार तरवारनी सोहली दोहली, चौदमा जिनतणी चरणसेवा; धार पर नाचता देख बाजीगरां, सेवनाधार पर रहे न देवा धार॥
उत्सूत्र प्ररूपणा महाभयंकर पाप है इसलिए मुमुक्षु आत्माओं को उत्सूत्र प्ररूपणा से सदा डरते रहना चाहिए और जिनेश्वर के वचनों को सदा अपने सामने रखना चाहिए। जहाँ अपनी समझ काम न कर सके वहाँ इस आगमिक वाक्य को सामने रखना चाहिए।
"तमेव सच्चं णीसंके जं जिणेहिं पवेइयं" अर्थ - जो वीतराग जिनेश्वर ने फरमाया है वह सत्य है शंका रहित है।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर हुए थे। उनकी नौ वाचनाएं हुई। अभी वर्तमान में उपलब्ध आगम पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं। सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है। इसलिए दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। वर्तमान में ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उसमें ठाणांग (स्थानांग) सूत्र का तीसरा नम्बर है। इसमें जीव, अजीव, जीवाजीव, स्व सिद्धान्त, पर सिद्धान्त, स्व पर सिद्धान्त, लोक, अलोक, लोकालोक तथा पर्वत, द्वीप हृद आदि भौगोलिक वस्तुओं का वर्णन है। अतः ठाणांग सूत्र का बहुत महत्त्व है। ठाणांग सूत्र में एक श्रुत स्कंध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशक तथा इक्कीस समुद्देशक हैं। ठाणांग सूत्र में विषयों की व्यवस्था उनके भेदों के अनुसार की गयी है अर्थात् समान संख्याक भेदों वाले विषयों को एक ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org