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स्थान १ उद्देशक १ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००00000000000000 साथ रखा गया है। एक भेद वाले पदार्थ पहले अध्ययन में हैं। दो भेदों वाले दूसरे अध्ययन में इस प्रकार दस भेदों तक के दस अध्ययन हैं। पदार्थों को ठाण या स्थान शब्द से कहा गया है। अब ठाणांग सूत्र का प्रारम्भ होता है उसका प्रथम सूत्र यह है -
सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - आउसं - हे आयुष्मन् !, अक्खायं - फरमाया है ।
भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् ! जम्बू ! जैसा मैंने ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। उन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार फरमाया है ।
विवेचन - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी को 'आयुष्मन्' शब्द से संबोधित करते हैं। इस सुकोमल एवं मृदु सम्बोधन में स्नेह एवं सम्मान के साथ-साथ शिष्य के दीर्घायुष्य की मंगल • कामना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं उन्हें आयु प्रिय है। कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो जीना , नहीं चाहता हो। प्रभु ने आचारांग सूत्र में फरमाया है - .. "सव्वे पाणा पियाउया, अप्पियवहा, सुहसाया दुक्खपडिकूला सव्वे जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं।" -
- - सभी प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, वध अप्रिय है, सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल होता है सभी जीव जीने की इच्छा वाले होते हैं और सभी को जीवन प्रिय होता है।
प्राणियों को आयुष्य अतीव प्रिय होने से 'आयुष्यमन्' शब्द अत्यंत हर्ष जनक है। इस सूत्र में 'आयुष्मन्' संबोधन इसी गंभीर आशय को लेकर प्रयुक्त हुआ है।
"आउसं" और 'तेणं' ये दो भिन्न भिन्न पद नहीं मान कर "आउसंतेणं" यह एक पद ही माना जाता है तब इसका अर्थ - 'आयुष्य वाले' किया जाता है तब उपरोक्त मूल पाठ का भावार्थ होता है - 'मैंने सुना है आयुष्य वाले केवलज्ञानी भगवान् ने इस तरह फरमाया है' क्योंकि जब तक आयु होती है तब तक ही भगवान् धर्मोपदेश फरमाते हैं। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त हो जाने के पश्चात् वे अशरीरी होने के कारण धर्मोपदेश नहीं फरमाते हैं।
'आउसंतेणं' के स्थान पर 'आवसंतेणं' पाठान्तर भी मिलता है, इसकी संस्कृत छाया होती है - 'आवसता' अर्थात् गुरु महाराज की बतलाई हुई मर्यादा के अन्दर रहते हुए अथवा गुरु महाराज के शिष्य परिवार रूप गुरुकुल में रहते हुए मैंने सुना है कि उन ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार फरमाया है। यहाँ पर 'आवसंतेणं' यह सुधर्मा स्वामी का विशेषण हो जाता है। जिसका अर्थ है मैंने भगवान् के समीप रहते हुए सुना है इधर-उधर रहते हुए नहीं इससे शिष्यों को यह शिक्षा मिलती है कि -
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