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________________ - स्थान-१ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थ - आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्रपरिज्ञा है। उस पर आचार्य गंध हस्ति ने टीका लिखी है। वह बहुत गहन और गूढार्थ है इसलिए मैं तो (शीलांक) सुखपूर्वक ज्ञान कराने के लिए इसका सार रूप ग्रहण करता हूँ। _ आचार्य शीलांक ने आगमों पर टीका लिखना बड़े उत्साह पूर्वक प्रारम्भ किया। आचारांग और सूयगडांग दो सूत्रों की टीका पूर्ण की। भावी को ऐसा ही मंजूर था अतः उनका आयुष्य पूर्ण हो गया और वे स्वर्गवासी हो गये। आगमों का काम अधूरा रह गया। तब चतुर्विध संघ ने अभयदेव सूरि से निवेदन किया कि आगमों पर टीका लिखने का काम अधूरा रह गया है। इसे आप पूरा कीजिए। तब अभयदेव सूरि ने अपनी असमर्थता प्रकट की। यद्यपि उस समय के विदयमान आचार्यों में वे आगमों के धुरन्धर विद्वान थे। संस्कृत के महान् पण्डित थे। फिर भी आगमों का काम अत्यन्त गहन और गूढार्थ होने के कारण उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की। फिर चतुर्विध संघ ने बहुत आग्रह पूर्वक विनति की कि, चतुर्विध संघ की दृष्टि में आप सर्वोच्च विद्वान और आगमों पर टीका लिखने के सर्वथा योग्य विद्वान है इसलिए संघ की आग्रह पूर्वक की हुई इस विनति को आप स्वीकार कीजिए। तब चतुर्विध संघ के अत्याग्रह को स्वीकार कर टीका लिखना प्रारम्भ किया। आचारांग और सूयगडांग की टीका आचार्य शीलांक द्वारा लिखी जा चुकी थी। इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम स्थानांग सूत्र की. टीका लिखना प्रारम्भ किया। वे उत्सूत्र प्ररूपणा से अत्यन्त भीरू (डरपोक) थे। इसलिए स्थानांग सूत्र की टीका की समाप्ति पर उन्होंने लिखा है - सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः। सर्वस्वपरशास्त्राणामह्यष्टेरस्मृतेश्च मे।। १॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः। सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित्॥ २॥ थूणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः। सिद्धान्तानुगतोयोऽर्थः, सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः॥३॥ शोध्यं चैतग्जिने भक्तैर्मामवद्भिर्दयापरैः। संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात्॥ ४॥ कार्या न चाक्षमाऽस्मासु, यतोऽस्माभिरनाग्रहैः। एतद् गमनिकामात्रमुपकारीति चर्चितम्॥ ५॥ टीकाकार अभयदेवसूरि स्थानांग सूत्र की टीका पूर्ण करके लिखते हैं कि, मेरे टीका करने में अशुद्धियाँ रह सकती हैं इसमें ये कारण हैं - १. श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण हो जाने के बाद उनके पाट पर सुधर्मास्वामी आये और उनके पाट पर जम्बूस्वामी आये। ये तीन पाट केवली हुए। इसके बाद केवलज्ञान विच्छेद हो गया। उसके बाद छद्मस्थ आचार्यों की पाट परम्परा चली किन्तु बीच-बीच में दुष्काल पड़ जाने के कारण पाट परम्परा अविच्छिन्न नहीं रह सकी। दुष्काल के समय कई विशिष्ट श्रुतधर आचार्य एवं मुनि काल कवलित हो गये। इससे पाट परम्परा विच्छिन्न हो गई २. अतएव सम्यक् तत्त्व विचारणा का भी विच्छेद हो गया। ३. मैंने (अभयदेव ने) सभी स्वसिद्धान्त और पर-सिद्धान्त देखे नहीं। और ४ जो देखे थे वे भी सब याद रहे नहीं। ५. आगमों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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