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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ है - पेटी या पिटारी अथवा मंजूषा। आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुत रत्नों की पेटी (मंजूषा) को गणि-पिटक कहते हैं।
जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं यथा - दो पैर, दो जंघा, दो उरू (साथल), दो पसवाडे, दो हाथ, एक गर्दन और एक मस्तक। इसी प्रकार श्रुत रूपी परम पुरुष के भी आचाराङ्ग आदि बारह अंग होते हैं।
__ आगमों का अर्थ बड़ा गहन और गूढ़ है उसका रहस्य उद्घाटन करने के लिए इन पर व्याख्याओं का होना अत्यन्त आवश्यक है। प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में आगमिक व्याख्याओं का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन व्याख्याओं को सामान्य रूप से पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है। यथा - - १. नियुक्ति - प्राकृत में पद्यबद्ध है। मूल के सब शब्दों का अर्थ न देकर केवल कठिन पारिभाषिक शब्दों का संक्षिप्त अर्थ दिया है। उपलब्ध नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली भद्रबाहु है।
२. भाष्य - प्राकृत में पद्यबद्ध है मूल तथा नियुक्ति पर अति विस्तृत अर्थ दिया है। भाष्यकार के रूप में दो आचार्य प्रसिद्ध हैं यथा - जिनभद्रगणी क्षमा श्रमण और संघदासगणी। ____३. चूर्णी - जैन आगमों की प्राकृत और संस्कृत दोनों में सम्मिमिश्रित चूर्ण की तरह अति विस्तृत व्याख्या है। चूर्णीकार के रूप में जिनदासगणी महत्तर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सर्वाधिक विस्तृत निशीथ चूर्णी है।
४. टीका - संस्कृत भाषा में है। टीका संक्षेप में भी है और विस्तार से भी है। टीकाकारों में विशेष उल्लेखनीय नाम ये हैं यथा - हरिभद्रसूरि, श्री शीलांकाचार्य (शीलांगाचार्य), अभयदेवसूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि।
___५. टब्बा - लोक भाषा में लिखा गया है। केवल शब्दार्थ मात्र है। कहीं कहीं पर संस्कृत टीकाओं से भिन्न अर्थ भी किया है जो कि, गूढार्थ है और वास्तविक है। पूज्य धर्मसिंहजी म. सा. ने सत्ताईस आगमों पर टब्बार्थ लिखा था।
विक्रम की नवमी या दसमी शताब्दी में शीलांक नाम के आचार्य हुए थे। उन्होंने आगमों पर टीका लिखना प्रारम्भ किया था। उने सामने आचार्य गंध हस्ती कृत टीका उपस्थित थी। ऐसा संकेत आचारांग सूत्र की टीका करते हुए इस श्लोक स्पष्ट होता है -
शस्त्रपरिज्ञा-विवरण-मतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्। तस्मात् सुखबोधार्थं गृणाम्यहमञ्जसा सारम्॥ .
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