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________________ स्थान ३ उद्देशक १ १४९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 वह 'दण्ड' है। अथवा प्राणियों को जिससे दुःख पहुंचता है उसे 'दण्ड' कहते हैं। अथवा मन, वचन काया की अशुभ प्रवृत्ति को 'दण्ड' कहते हैं। दण्ड के तीन भेद हैं - १. मन दण्ड २. वचन दण्ड और ३. काया दण्ड। ___तिविहा गरहा पण्णत्ता तंजहा - मणसा वेगे गरहइ, वयसा वेगे गरहइ, कायसा वेगे गरहइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए। अहवा गरहा तिविहा पण्णत्ता तंजहा - दीहं वेगे अद्धं गरहइ, रहस्सं वेगे अद्धं गरहइ, कायं वेगे पडिसाहरइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए। तिविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते तंजहा - मणसा वेगे पच्चक्खाइ, वयसा वेगे पच्चक्खाइ, कायसा वेगे पच्चक्खाइ। एवं जहा गरहा तहा पच्चक्खाणे वि दो आलावगा भाणियव्या॥ ६१॥ कठिन शब्दार्थ - गरहा - गो, गरहइ - गर्दा करता है, पावाणं कम्माणं - पाप कर्मों का, अकरणयाए - न करने की, पडिसाहरइ - हटा लेता है, पच्चक्खाइ - प्रत्याख्यान करता है। भावार्थ - पाप कर्म खराब है ऐसा जान कर पाप कर्मों को न करना सो गर्दा कहलाती है। वह गर्दा तीन प्रकार की कही गई है। यथा - वे कितनेक पुरुष मन से पापकर्म की. निन्दा करते हैं, कितनेक पुरुष वचन से पाप की निन्दा करते हैं और कितनेक काया से निन्दा करते हैं अर्थात् पाप कर्म न करने की प्रतिज्ञा करते हैं अथवा दूसरी प्रकार से भी गर्दा तीन प्रकार की कही गई है। यथा- कोई जीव बहुत काल तक पापों की निन्दा करता है, कोई जीव थोड़े काल तक पापों की निन्दा करता है और कोई पाप कर्मों को न करने के लिए अपनी काया को पाप कर्मों से हटा लेता है। प्रत्याख्यान तीन प्रकार का कहा गया है यथा - कोई मन से पाप का प्रत्याख्यान करता है, कोई वचन से प्रत्याख्यान करता है और कोई काया से प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार जैसे गर्दा के विषय में कहा है उसी प्रकार प्रत्याख्यान के विषय में भी दो आलापक कह देना चाहिए अर्थात् कोई दीर्घ काल के लिए प्रत्याख्यान करता है, कोई अल्प काल के लिए प्रत्याख्यान करता है और कोई सदा के लिए पाप कर्मों से अपनी आत्मा को हटा लेता है। . . विवेचन - स्वयं की आत्मा संबंधी अथवा दूसरों की आत्मा संबंधी दण्ड के प्रति जुगुप्सा करना गर्दा है। पाप की जुगुप्सा - निंदा यानी विशुद्ध चित्त से निरंतर पाप का खेद करना, पाप नहीं करना और पाप की विचारणा भी नहीं करनी। भूतकाल विषयक दण्ड के प्रति गर्दा होती है जब कि भविष्यकाल के दण्ड का प्रत्याख्यान होता है। किये हुए पाप कर्मों को आत्मसाक्षी से बुरा समझना निंदा कहलाता है। और उन्हीं पाप कर्मों को गुरु महाराज के सामने अथवा अपने से बड़े रत्नाधिकों के सामने प्रकट करना गर्दा कहलाता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मसाक्षी से निन्दा और गुरु साक्षी से गर्दा कहलाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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