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श्री स्थानांग सूत्र
भावार्थ - तीन गुप्तियाँ कही गई हैं। यथा - मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति। संयत मनुष्य यानी साधुओं के तीन गुप्तियाँ कही गई हैं। यथा-- मनो गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति। तीन अगुप्तियाँ कही गई है। यथा- मन अगुप्ति, वचन अगुप्ति और काय अगुप्ति। ये तीनों अगुप्तियाँ नैरयिकों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक सब भवनपति देवों में पाई जाती हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों में असंयत मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों में " तीन अगुप्तियां पाई जाती हैं। तीन दंड कहे गये हैं। यथा - मन दण्ड, वचन दण्ड और काय दण्ड। \ नैरयिकों के तीन दण्ड कहे गये हैं। यथा - मन दण्ड, वचन दण्ड और काय दण्ड। एकेन्द्रिय,
बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों को छोड़ कर यावत् वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में ये तीनों दण्ड पाये जाते हैं।
विवेचन - गुप्ति - अशुभ योग से निवृत्त हो कर शुभ योग में प्रवृत्ति करना गुप्ति है। अथवा मोक्षाभिलाषी आत्मा का आत्म-रक्षा के लिए अशुभ योगों का रोकना गुप्ति है। अथवा आने वाले कर्म रूपी कचरे को रोकना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेद हैं - १. मनोगुप्ति २. वचन गुप्ति और ३. काय गुप्ति।
१. मनोगुप्ति - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, संरम्भ, सभारंभ और आरम्भ सम्बन्धी संकल्प विकल्प न करना, परलोक में हितकारी धर्मध्यान सम्बन्धी चिन्तन करना, मध्यस्थ भाव रखना, शुभ अशुभ योगों को रोक कर योग निरोध अवस्था में होने वाली अन्तरात्मा की अवस्था को प्राप्त करना मनोगुप्ति है। .
२. वचन गुप्ति - वचन के अशुभ व्यापार अर्थात् संरम्भ समारम्भ और आरंभ सम्बन्धी वचन का त्याग करना, विकथा न करना, मौन रहना वचन गुप्ति है। ___३. काय गुप्ति - खड़ा होना, बैठना, उठना, सोना, लांघना, सीधा चलना, इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में लगाना, संरम्भ, समारम्भ आरम्भ में प्रवृत्ति करना, इत्यादि कायिक व्यापारों में प्रवृत्ति न करना अर्थात् इन व्यापारों से निवृत्त होना कायगुप्ति है। अयतना का परिहार कर यतना पूर्वक काया से व्यापार करना एवं अशुभ व्यापारों का त्याग करना काय गुप्ति है।
गुप्ति से विपरीत अगुप्ति भी तीन प्रकार की कही है। सामान्य सूत्र की तरह नैरयिक आदि की तरह तीन अगुप्तियाँ कही गई है इतनी विशेषता है कि यहाँ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय नहीं कहे गये हैं। क्योंकि एकेन्द्रिय में यथायोग्य वाणी और मन का अभोव होता है तथा संयत मनुष्यों का भी निषेध किया है क्योंकि उनमें गुप्ति का प्रतिपादन किया है। अगुप्ति स्वयं के लिए और दूसरों के लिए दण्ड रूप होती है। अतः आगे के सूत्र में दण्ड का निरूपण किया गया है।
दण्ड - जो चारित्र रूपी आध्यात्मिक ऐश्वर्य का अपहरण कर आत्मा को असार कर देता है
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