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________________ स्थान ३ उद्देशक १ ३. काययोग - औदारिक आदि शरीर वर्गणा के पुद्गलों के आलंबन से होने वाले आत्म प्रदेशों के व्यापार को काय योग कहते हैं। आत्मा के परिणाम विशेष को करण कहते हैं । अथवा जिसके द्वारा किया जाय वह 'करण' कहलाता है। करण के तीन भेद हैं १. आरम्भ २. संरम्भ और ३. समारम्भ। संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ इन तीन शब्दों का अर्थ बतलाने वाली गाथा इस प्रकार है - संकप्पो संरंभी, परितावकरो भवे समारंभो । आरंभी उद्दवओ, सव्वणयाणं विसुद्धाणं ॥ अर्थ - १. संरम्भ - पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा विषयक मन में संक्लिष्ट परिणामों का लाना संरम्भ कहलाता है। १४५ २. समारम्भ - पृथ्वीकाय आदि जीवों को सन्ताप देना समारम्भ कहलाता है। ३. आरम्भ - पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा करना 'आरम्भ' कहलाता है । मूल पाठ में 'विगलिंदियवज्जाणं' शब्द दिया है। इसका अर्थ समझने की आवश्यकता है। वह इस प्रकार है। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन ये पाँच इन्द्रियाँ कही गई है। सम्पूर्ण को 'सकल' कहते हैं। 'कम' (न्यून) को 'विकल' कहते हैं। जिसके पाँचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण हो उसे . पंचेन्द्रिय (सकलेन्द्रिय) कहते हैं। पाँच इन्द्रियों से जिसके कम हो उसे 'विकलेन्द्रिय' कहते हैं। इस अपेक्षा से एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय इन चार को विकलेन्द्रिय कहते हैं । यहाँ पर इन चारों के लिए विकलेन्द्रिय शब्द का प्रयोग हुआ है। शास्त्रकार की विवक्षा भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। इसलिए कहीं पर एकेन्द्रिय शब्द का प्रयोग अलग हुआ है, वहाँ पर सिर्फ पृथ्वीकाय आदि पाँच एकेन्द्रियों का ही ग्रहण हुआ है। आगे विकलेन्द्रिय शब्द से बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय इन तीन का ही ग्रहण हुआ है। एकेन्द्रियों में गति, स्थिति, अवगाहना आदि कुछ बातों की परस्पर भिन्नता होने के कारण शास्त्रकार ने उनको अलग ले लिया है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय में विशेष भिन्नता न होने के कारण इन तीनों को एक विकलेन्द्रिय शब्द से ग्रहण कर लिया गया है। तिर्हि ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा पाणे अइवाइत्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण पाण खाइम साइमेणं पडिलाभित्ता भवइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाग्र्यत्ताए कम्मं पगरेंति । तिर्हि ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहाणो. पाणे अइवइत्ता भवइ, णो मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुयएसणिज्जेणं असण पाण खाइम साइमेणं पडिलाभित्ता भवइ, इच्चेएहिं तिहिं Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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