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________________ भावार्थ-ती १४४ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 तिविहे जोगे पण्णत्ते तंजहा - मणजोगे वयजोगे कायजोगे, एवं णेरइयाणं विगलिंदियवग्जाणं जाव वेमाणियाणं। तिविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा -मणपओगे वयपओगे कायपओगे, जहा जोगो विगलिंदिय वजाणं तहा पओगो वि। तिविहे करणे पण्णत्ते तंजहा - मणकरणे वयकरणे कायकरणे, एवं विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं। तिविहे करणे पण्णत्ते तंजहा- आरंभकरणे संरंभकरणे समारंभकरणे, णिरंतरं जाव वेमाणियाणं॥५८॥ कठिन शब्दार्थ - जोगे - योग, विगलिंदियवजाणं - विकलेन्द्रिय को छोड़ कर, पओगे - प्रयोग, मणपओगे - मन प्रयोग, वयपओगे - वचन प्रयोग, कायपओगे - काय प्रयोग, करणे - करण, आरंभकरणे - आरंभ करण, संरंभ करणे - संरम्भ करण, समारंभकरणे - समारंभ करण। गया है यथा - मनोयोग, वचनयोग और काययोग। एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रियों को छोड़ कर नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में इसी प्रकार तीनों योग पाये जाते हैं। तीन प्रकार का प्रयोग कहा गया है यथामनप्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग। जिस प्रकार योग का कथन किया उसी प्रकार एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रियों को छोड़ कर प्रयोग भी सब दण्डकों में पाया जाता है। तीन प्रकार का करण कहा गया है यथा - मन करण, वचन करण और काय करण। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों को छोड़ कर यावत् वैमानिकों तक सभी दण्डकों में इसी प्रकार कहना चाहिए। तीन प्रकार का करण कहा गया है यथा - पृथ्वीकाय आदि छह काय जीवों को मारना सो आरम्भ करण, इन जीवों को मारने का संकल्प करना सो संरम्भकरण और इन जीवों को परिताप उपजाना सो समारम्भकरण है। ये तीनों करण निरन्तर यावत् वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में पाये जाते हैं। विवेचन - वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन, काया के निमित्त से आत्म प्रदेशों के चंचल होने को 'योग' कहते हैं। अथवा वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति विशेष से होने वाले साभिप्राय आत्मा के पराक्रम को 'योग' कहते हैं। योग के तीन भेद हैं - १. मनोयोग २. वचन योग ३. काय योग। १. मनोयोग - नो इन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम स्वरूप आन्तरिक मनोलब्धि होने पर मनोवर्गणा के आलम्बन से मन के परिणाम की ओर झुके हुए आत्मप्रदेशों का जो व्यापार होता है, उसे मनोयोग कहते हैं। २. वचन योग - मति ज्ञानावरण, अक्षर श्रुत ज्ञानावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से आन्तरिक वचन (वाग्) लब्धि उत्पन्न होने पर वचन वर्गणा के आलम्बन से भाषा परिणाम की ओर अभिमुख - आत्मप्रदेशों का जो व्यापार होता है, उसे वचन योग कहते हैं। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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