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________________ स्थान ३ उद्देशक १ 000 संख्यात उत्पन्न होते हैं। अकतिसञ्चित अर्थात् एक एक समय में असंख्यात अनन्त उत्पन्न होते हैं, और अवक्तव्यसञ्चित अर्थात् जिनका परिमाण कति और अकति द्वारा नहीं कहा जा सकता है। एकेन्द्रियों को छोड़ कर यावत् वैमानिक देवों तक १९ दण्डक में इसी प्रकार कह देना चाहिए, क्योंकि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय इन चार में तो समय समय पर असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं और वनस्पतिकाय में अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। परिचारणा यानी देवों का मैथुन तीन प्रकार का कहा गया है यथा- कोई कोई देव अपने से कम ऋद्धि वाले दूसरे देवों को और दूसरे देवों की देवियों को अपने वश में करके उन देवियों के साथ मैथुन सेवन करते हैं तथा कोई कोई देव अपनी देवियों को ही वश में करके उनके साथ मैथुन सेवन करते हैं और कोई कोई देव स्वयं अपने शरीर को ही परिचारणा के योग्य देवी का रूप बना कर उसके साथ मैथुन सेवन करते हैं । २. कोई कोई देव न तो अपने से कम ऋद्धि वाले दूसरे देवों को और न दूसरे देवों की देवियों को वश करके उनके साथ मैथुन सेवन करते हैं किन्तु अपनी देवियों को वश करके उनके साथ मैथुन सेवन करते हैं और स्वयं अपने शरीर को ही परिचारणा के योग्य देवी का रूप बना कर उसके साथ मैथुन सेवन करते हैं । ३. कोई कोई देव न तो अपने से कम ऋद्धि वाले दूसरे देवों को और न दूसरे देवों की देवियों को वश करके उनके साथ मैथुन सेवन करते हैं और न अपनी देवियों को वश करके उनके साथ मैथुन सेवन करते हैं किन्तु स्वयं अपने शरीर को ही परिचारणा के योग्य देवी का रूप बना कर उसके साथ मैथुन सेवन करते हैं। तीन प्रकार का मैथुन कहा गया है यथा देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यञ्च सम्बन्धी । तीन मैथुन सेवन करते हैं यथा देव, मनुष्य और तिर्यञ्च योनि के जीव । तीन मैथुन सेवन करते हैं यथा स्त्री, पुरुष और नपुंसक । एकत्रित किये हुए। विवेचन - कति अर्थात् कितनी संख्या वाला संख्यात । संचित यानी कतिसंचित यानी उत्पत्ति की समानता से बुद्धि से एकत्रित किये हुए। अकति यानी न कति अर्थात् संख्यात नहीं- असंख्यात अथवा अनंत । अवक्तव्य अर्थात् जो कति संख्यात और अकति- असंख्यात या अनंत इस प्रकार निर्णय करने में शक्य नहीं, वह अवक्तव्य है। नैरयिक तीन प्रकार के कहे हैं - कति संचित, अकति संचित और अवक्तव्य संचित । नैरयिक एक समय में एक दो आदि संख्यात असंख्यात उत्पन्न होते हैं। नैरयिक की तरह भवनपति देवों आदि के विषय में भी समझना चाहिए । क्योंकि दोनों की संख्या समान है। एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष दंडकों के विषय में इसी तरह समझना चाहिए । एकेन्द्रिय में प्रति समय अकतिसंचित - असंख्यात अथवा अनंत ही उत्पन्न होते हैं एक अथवा संख्यात उत्पन्न नहीं होते हैं। - Jain Education International - - १४३ - मिथुनं - स्त्री पुरुष युगल, दोनों का सम्मिलित चौथा पाप मैथुन कहलाता है। नैरयिकों में द्रव्य से मैथुन संभव नहीं होने से तीन प्रकार का मैथुन कहा है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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