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________________ १४२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 आभरण आदि को ग्रहण कर शोभा करना। २. बाह्य पुद्गल ग्रहण किये बिना ही विभूषा करना जैसे कि - केश नख आदि को संवारना और ३. उभय से बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण न करके शोभा करना अथवा ग्रहण नहीं करके कीडों या सर्प आदि का रक्तपना और फण आदि फैलाने रूप लक्षण वाली विकुर्वणा करना। इसी प्रकार दूसरा सूत्र जानना। विशेष यह है कि भवधारणीय - मूल शरीर से अथवा औदारिक शरीर से जो अवगाहित क्षेत्र के विषय में वर्तते हैं वे आभ्यंतर पुद्गल जानना। विभूषा पक्ष में थूकना आदि आभ्यंतर पुद्गल जानना। बाह्य आभ्यंतर पुद्गलों के ग्रहण करने से भवधारणीय शरीर की रचना करना उसके बाद भवधारणीय शरीर का केश आदि का संवारना और नहीं ग्रहण करने से बहुत समय से विकुर्वणा किये हुए शरीर के. ही मुख आदि की विकृति करने रूप, उभय से तो अनिष्ट बाह्य आभ्यंतर पुद्गलों को ग्रहण करने से इष्ट बाह्य-आभ्यंतर पुद्गलों का ग्रहण नहीं करने से भवधारणीय शरीर से भिन्न अनिष्ट रूप की रचना करना। तिविहाणेरड्या पण्णत्ता तंजहा - कइसंचिया, अकइसंचिया, अवत्तव्वगसंचिया। एवमेगिंदियवजा जाव वेमाणिया। तिविहा परियारणा पण्णत्ता तंजहा - एगे देवे अण्णे देवे अण्णेसिं देवाणं देवीओ य अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजंजिय अभिजंजिय परियारेड, अप्पाणमेव अप्पणा विउव्विय विउव्विय परियारेइ। एगे देवे णो अण्णे देवा णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ य अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेइ, अप्पाणमेव अप्पणा विउव्विय विउव्विय परियारेइ। एगे देवे णो अण्णे देवा णो अण्णेसिं देवाणं देवीओ य अभिमुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ, णो अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेइ, अप्पाणमेव अप्पाणं विउव्विय विउव्विय परियारेइ। तिविहे मेहुणे पण्णत्ते तंजहा - दिव्वे, माणुस्सए, तिरिक्खजोणीए। तओ मेहुणं गच्छंति तंजहा - देवा मणुस्सा तिरिक्खजोणीया तओ मेहुणं सेवंति तंजहा - इत्थी पुरिसा णपुंसगा॥५७॥ कठिन शब्दार्थ - कइसंचिया - कति संचित, अकइसंचिया - अकति संचित, अवत्तव्यगसंचिया - अवक्तव्य संचित, अभिजुंजिय - वश में करके, परियारेइ - मैथुन सेवन करते हैं, विउब्धिय - वैक्रिय रूप बना कर के। भावार्थ - नैरयिक तीन प्रकार के कहे गये हैं यथा - कति सञ्चित अर्थात् एक एक समय में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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