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________________ १३२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 दर्शनावरणीय कहते हैं। जैसे द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक होता है उसी प्रकार दर्शन गुण का घातक दर्शनावरणीय कर्म है। चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और अवधिदर्शनावरणीय देश दर्शनावरणीय कर्म है, जो दर्शन गुण का देश से आवरण करते हैं। अतएव ये तीन देशघाती है। पांच प्रकार कि निद्रा और केवलदर्शनावरणीय ये छह भेद सर्व दर्शनावरणीय कर्म के हैं। अतएव सर्वघाती है। ३. वेदनीय - जो वेदा जाता है, अनुभव किया जाता है, वह वेदनीय कर्म है। साता-सुख, जो सुख रूप से वेदा जाता है वह साता वेदनीय और जो दुःख रूप वेदा जाता है वह आसातावेदनीय कर्म है। मध से लिपटी. तीक्ष्ण तलवार की धार को जीभ से चाटने के समान सुख और दुःख का उत्पादक वेदनीय कर्म जानना चाहिए। ४. मोहनीय - जो भान भूला देता है वह मोहनीय कर्म है, जैसे मद्य पान किया हुआ मूढ मनुष्य परतंत्र हो जाता है उसी प्राकर मोहनीय कर्म से मूढ बना हुआ प्राणी परतंत्र हो जाता है। जो दर्शन का भान भूलावे वह दर्शन मोहनीय कर्म है। दर्शन मोहनीय कर्म के तीन भेद हैं - १. मिथ्यात्व मोहनीय २. मिश्र मोहनीय और ३. सम्यक्त्व मोहनीय। सामायिक आदि चारित्र का जो भान भूलाता है वह १६ कषाय और ९ नोकषाय भेद रूप चारित्र मोहनीय कर्म है। ५. आयुष्य - जो गति को प्राप्त कराता है वह आयुष्य कर्म है। चार गति के जीवों को आयुष्य कर्म सुख दुःख नहीं देता परन्तु सुख दुःख के आधार भूत शरीर में रहे हुए जीव को धारण करता है। अर्थात् सुख दुःख देना वेदनीय कर्म का सामर्थ्य है। आयुष्य कर्म तो जीव को शरीर में रोक रखता है। आयुकर्म के दो भेद हैं - १. अद्धायु जो कि कायस्थिति रूप (मनुष्य तिर्यंच की) है। २. भवायु - भवस्थिति रूप है। .. ६. नाम - जो जीव को विचित्र पर्यायों में परिणमाता है वह नाम कर्म है। जैसे कुशल चित्रकार निर्मल और अनिर्मल वर्गों से शुभ (अच्छे) और अशुभ (बुरे) अनेक प्रकार के चित्र बनाता है उसी प्रकार नाम कर्म भी लोक में अच्छे बुरे, इष्ट अनिष्ट अनेक प्रकार के रूप करवाता है। तीर्थंकर आदि नाम कर्म की शुभ प्रकृतियाँ भी है तो अनादेय आदि अशुभ प्रकृतियाँ भी है। ७. गोत्र - जिस कर्म के कारण जीव पूज्य (ऊंच) अथवा अपूज्य (नीच) कुलों में उत्पन्न होता है वह गोत्र कर्म है। जैसे कुंभकार लोक में पूज्य घृत कुंभ आदि एवं अपूण्य मदिरा के घट आदि बर्तन बनाता है उसी प्रकार गोत्र कर्म लोक में पूज्य इक्ष्वाकु आदि गोत्र और अपूज्य चांडाल आदि गोत्र में उत्पन्न करवाता है। ऊंच गोत्र पूज्यपने का कारण है और नीच गोत्र अपूज्यपने का कारण है। ८. अन्तराय - जो कर्म आत्मा के दान लाभ आदि रूप शक्तियों का घात करता है वह अन्तराय है। यह कर्म भण्डारी के समान है। जैसे राजा की दान देने की आज्ञा होने पर भण्डारी के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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