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________________ . स्थान २ उद्देशक ४ १२७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 अब्भणुण्णायाइं - अभ्यनुज्ञात-आचरण की आज्ञा, वलयमरणे - वलन्मरण, वसट्टमरणे - वशात मरण, णियाणमरणे - निदान मरण, तब्भवमरणे - तद्भवमरण, गिरिपडणे - गिरिपतन, तरुपडणे - तरुपतन, जलप्पवेसे- जल प्रवेश, जलणप्पवेसे - ज्वलन (अग्नि) प्रवेश, विसभक्खणे - विष भक्षण, सत्थोवाडणे - शस्त्रावपाटन, अप्पडिकुट्ठाई - अप्रतिकृष्ट-निषेध नहीं किया है, वेहाणसे - वैहानस, गिद्धपिट्टे- गृद्ध स्पृष्ट (गृद्ध पृष्ठ) पाओवगमणे - पादपोपगमन, भत्तपच्चक्खाणे - भक्त प्रत्याख्यान, णीहारिमे - निर्हारिम, अणीहारिमे- अनिर्दारिम, णियम - नियम से, अपडिक्कमे - अप्रतिकर्म-शरीर की हलन चलन रहित, सपडिक्कमे- सप्रतिकर्म। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो मरण कदापि आचरण करने योग्य नहीं बतलाये हैं, कदापि कीर्तन नहीं किये हैं, कदापि आदरने योग्य नहीं बतलाये हैं, इनकी कदापि प्रशंसा नहीं की है और ये कदापि अभ्यनुज्ञात नहीं हैं अर्थात् इनका आचरण करने के लिए कदापि आज्ञा नहीं दी है वे दो मरण ये हैं-वलन्मरण यानी परीषहों से घबरा कर संयम से भ्रष्ट होकर मरना और वशार्त्तमरण अर्थात् दीपक की शिखा पर गिर कर मरने वाले पतङ्गिये के समान इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर मरना। इसी प्रकार आगे कहे जाने वाले दो दो मरणों की भी भगवान् ने आज्ञा नहीं दी है। यथा - निदान मरण यानी ऋद्धि आदि का निदान करके मरना और तद्भवमरण यानी जो जीव जिस भव में है उसी भव के योग्य आयुष्य बांध कर मरना। गिरिपतन यानी पर्वत पर से गिर कर मरना और तरुपतन अर्थात् वृक्ष पर से गिर कर मरना। जलप्रवेश यानी पानी में गिर कर मरना और ज्वलनप्रवेश यानी अग्नि में गिर कर मरना। विषभक्षण यानी जहर खाकर मरना और शस्त्रावपाटन यानी शस्त्र से अपने शरीर को चीर डालना। आगे कहे जाने वाले दो मरण सदा अभ्यनुज्ञात नहीं हैं यानी इनका सदा आचरण करने के लिए आज्ञा नहीं दी हैं किन्तु कारण उपस्थित होने पर यानी ब्रह्मचर्य आदि की रक्षा का दूसरा कोई उपाय न हो तो भगवान् ने इन दो मरणों का निषेध नहीं किया है यथा - वैहानस यानी फांसी द्वारा वृक्ष आदि में लटक कर मरना और गृद्धस्पृष्ट या गृद्धपृष्ठ यानी मरे हुए हाथी या ऊंट आदि के कलेवर में प्रवेश कर अपने शरीर का मांस गिद्ध पक्षियों को खिला देना।. . . श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो मरण सदा वर्णित किये हैं यावत् ये दो मरण अभ्यनुज्ञात होते हैं अर्थात् इनका आचरण करने के लिए भगवान् ने आज्ञा दी है यथा पादपोपगमन यानी कटे हुए वृक्ष के समान निश्चल होकर समाधिपूर्वक मरना और भक्तप्रत्याख्यान यानी तीन आहार या चारों आहार का त्याग करना। पादपोपगमन मरण दो प्रकार का कहा गया है यथा - निर्झरिम यानी जो गांव, नगर आदि वसति में किया जाता है और फिर मृतशरीर को वहाँ से बाहर ले जाना पड़ता है और अनिर्हारिम यानी यह पर्वत की गुफा आदि में किया जाता है जहाँ से मृत शरीर को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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