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श्री स्थानांग सूत्र
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बाहर ले जाने की आवश्यकता नहीं रहती है। यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन मरण निश्चित रूप से अप्रतिकर्म यानी शरीर की हलन चलन आदि क्रिया से रहित होता है । भक्तप्रत्याख्यान मरण दो प्रकार का कहा गया है यथा निर्हारिम और अनिर्हारिम। यह दोनों प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान मरण निश्चित रूप सेसप्रतिकर्म है यानी इसमें शरीर की हलन चलन आदि क्रियाओं का त्याग नहीं होता है।
विवेचन - श्रमु तपसि खेदे च इस धातु से 'श्रमण' शब्द बनता है। जिसकी व्युत्पत्ति इस ' प्रकार है -
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श्राम्यति तपस्यति, तपः करोति इति श्रमणः ।
तथा श्राम्यति - जगत् जीवानां खेदं दुःखं जानाति इति श्रमणः ॥
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अर्थ- जो तप संयम में अपना जीवन लगाता है तथा जगत् के जीवों को दुःखी देखकर उनके दुःख को दूर करने का उपाय बताता है उसे भ्रमण कहते हैं। भ्रमण पांच प्रकार के कहे हैं १. निर्ग्रन्थ २. शाक्य ३. तापस ४. गैरिक ५. आजीविक । प्रस्तुत सूत्र में शाक्य (बौद्ध भिक्षु) आदि का निषेध करने के लिये श्रमण का विशेषण दिया है निर्ग्रन्थ, जिसका अर्थ है- बाह्य और आभ्यंतर : ग्रंथ (परिग्रह) से मुक्त ऐसे श्रमण निर्ग्रन्थ के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दो-दो मरण आचरण करने योग्य नहीं बतलाये हैं, कीर्तित नहीं किये हैं, आदरने योग्य नहीं बताये हैं, प्रशंसा नहीं की है और आचरण करने की आज्ञा नहीं दी है। वे इस प्रकार हैं।
१. वलन्मरण - संयम की प्रवृत्तियों में खिन्न हुए खेद प्राप्त जीवों का जो मरण होता है, वह वलन्मरण है।
२. वर्शात्तमरण - तेल सहित दीपक की शिखा को देख कर व्याकुल बने पतंगिये की तरह इन्द्रियों के वश बने हुए जीवों का जो मरण है, वह वशार्त्त मरण है।
३. निदान मरण - ऋद्धि और भोग आदि की प्रार्थना 'निदान' है और निदान पूर्वक जो मरण होता है वह निदान मरण है।
४. तद्भवमरण - जो जीव जिस भव में है उसी भव के योग्य आयुष्य बांध कर मरना तद्भव मरण है। तद्भव मरण संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्यों और तिर्यंचों को होता है। वे ही तद्भव का आयुष्य बंध करते हैं। कहा भी है.
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मोत्तुं अकम्मभूमग-नरतिरिए सुरगणे य णेरइए। सेसाणं जीवाणं, तब्भवमरणं तु केसिं चि ।।
अकर्म भूमिक मनुष्य, तिर्यंच और देव तथा नैरयिकों को छोड़ कर शेष मनुष्य और तिर्यंचों में कितनेक जीवों को ही तद्भवमरण होता है।
५. गिरिपतन मरण - पर्वत पर से गिर कर मरना ।
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