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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 यावत् सशरीरी और अशरीरी तक इस गाथा का अनुसरण करना चाहिए अर्थात् इस गाथा के अनुसार जानना चाहिए। गाथा मूल पाठ में दी हुई है, जिसका अर्थ यह है -
१. सिद्ध, असिद्ध २. सेन्द्रिय, अनिन्द्रिय ३. सकायी, अकायी ४. सयोगी, अयोगी ५. सवेदी, अवेदी ६. सकषायी, अकषायी ७. सलेश्य, अलेश्य ८. ज्ञानी, अज्ञानी ९. साकारोपयोगी, अनाकारोपयोगी अर्थात् ज्ञानोपयोगी, दर्शनोपयोगी १०. आहारी, अनाहारी ११. भाषक, अभाषक १२. चरम, अचरम
और १३. सशरीरी, अशरीरी । इस प्रकार इन तेरह बोलों का कथन कर देना चाहिए। - विवेचन - क्रोध मोहनीय के उदय से होने वाला, कृत्य अकृत्य के विवेक को हटाने वाला प्रज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं। क्रोध वश जीव किसी की बात सहन नहीं करता और बिना विचारे अपने और पराए अनिष्ट के लिए हृदय में और बाहर जलता रहता है। क्रोध दो प्रकार का कहा है - १. आत्म प्रतिष्ठित - अपनी स्वयं की कोई त्रुटि देख कर अपनी आत्मा में उत्पन होने वाला अथवा अपनी आत्मा द्वारा दूसरों पर होने वाला क्रोध आत्म प्रतिष्ठित कहलाता है। २. पर प्रतिष्ठित - दूसरों के द्वारा कटु वचन आदि सुन कर उत्पन्न होने वाला अथवा दूसरों पर किया जाना वाला क्रोध पर प्रतिष्ठित है। क्रोध के इन दो भेदों की तरह नैरयिक आदि चौबीस दण्डकों में शेष मिथ्यादर्शन शल्य पर्यंत अठारह पापों के दो-दो भेद समझना चाहिये।
दो मरणाइं समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णो णिच्चं वणियाइं णो णिच्चं किर्तियाइं णो णिच्चं पूइयाइं णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं अब्भणुण्णायाइं भवंति तंजहा वलयमरणे चेव, वसट्टमरणे चेव। एवं णियाणमरणे चेव तब्भवमरणे चेव। गिरिपडणे चेव तरुपडणे चेव। जलप्पवेसे चेव जलणप्पवेसे चेव। विसभक्खणे चेव सत्थोवाडणे चेव। दो मरणाइं जाव णो णिच्चं अब्भणुण्णायाइं भवंति, कारणेण पुण अप्पडिकुट्ठाई तंजहा - वेहाणसे चेव गिद्धपिढे चेव। दो मरणाइं समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वणियाई जाव अब्भणुण्णायाइं भवंति तंजहा - पाओवगमणे चेव भत्तपच्चक्खाणे चेव। पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - णीहारिमे चेव अणीहारिमे चेव णियमं अपडिक्कमे। भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - णीहारिमे चेव अणीहारिमे चेव णियमं सपडिक्कमे॥४९॥
कठिन शब्दार्थ - मरणाई - मरण, णो - नहीं, णिच्चं - नित्य, वणियाई - वर्णित किये हैं, कित्तियाई - कीर्तन किये गये हैं, पूड़याई (बूइयाइं) - पूजने योग्य, पसत्थाई - प्रशस्त,
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