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________________ १०० श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - छह वर्षधर पर्वतों पर छह द्रह कहे हैं उनके नाम क्रमशः इस गाथा में दिये हैं - पउमे य १ महापउमे २ तिगिंछी ३ केसरी ४ दहे चेव। हरए महापुंडरिए ५ पुंडरीए चेव य ६ दहाओ॥ - १ पद्म २. महापद्म ३. तिगिंछी ४. केशरी ५. महापुंडरीक और ६. पुंडरीक। हिमवान् पर्वत के ऊपर बहुमध्य भाग में पद्म है जिसके अंदर पद्मद्रह है। इसी प्रकार शिखरी पर्वत के ऊपर बहुमध्य भाग में पुंडरीक नाम का द्रह है। दोनों द्रह पूर्व और पश्चिम में १००० योजन के लम्बे, ५०० योजन चौड़े चार कोणों से १० योजन ऊंचे चांदी के तीर, वज्रमय पाषाण रक्त सुवर्ण तल वाले, सुवर्ण मध्य रजत मणि. की वेलु वाले हैं चारों दिशाओं में मणि के पगथिये (सोपान) वाले सुखपूर्वक उतरने योग्य तोरण, ध्वज और छत्र आदि से सुशोभित नीलोत्पल और पुंडरीक कमल आदि से रचित विविध पक्षी और मछलियाँ जहाँ घूम रही है तथा भ्रमरों के समूह से उपभोग्य ऐसे पद्म द्रह में श्रीदेवी और पुंडरीक द्रह में लक्ष्मी देवी है। दोनों देवियाँ पल्योपम के आयुष्य वाली होने से भवनपति जाति की है। क्योंकि वाणव्यंतर देवियों की उत्कृष्ट आयु अर्द्ध पल्योपम की होती है. जबकि भवनपति देवियों की उत्कृष्ट आयु ४॥ पल्योपम प्रमाण होती है। दोनों महाद्रह के मध्य १ योजन के लम्बे-चौड़े आधे योजन के जाड़े आधे योजन के ऊंचे और जल में १० योजन डूबे हुए कमल हैं। जिनके वनमय. मूल, रिष्ठरत्नमय कंद, वैढर्य रत्नमय नाल और बाह्यपत्र तथा जांबूनद (सुवर्ण) मय अंदर के पत्र पीले सुवर्ण की कर्णिका और तपे हुए सुवर्ण की केशरी तंतुएं हैं। उन दो कमलों की दो कर्णिका आधे योजन की लम्बी चौडी और एक कोस ऊंची है उसके ऊपर इन दो देवियों के भवन हैं। महाहिमवान् पर्वत पर महापद्म द्रह और रुक्मी पर्वत पर महापोंडरीक द्रह है। दोनों द्रह दो हजार योजन लम्बे एक हजार योजन चौड़े हैं दो योजन के लम्बे चौड़े कमल हैं इन दोनों कमल में दो देवियां रहती है। महापद्म में ही देवी और महापुंडरीक में बुद्धि देवी है। निषध पर्वत के तिगिंछी द्रह में धृति देवी और नीलवान् पर्वत के केशरी द्रह में कीर्ति देवी का निवास है। ये दोनों द्रह ४ हजार योजन के लम्बे और दो हजार योजन के चौड़े हैं। रोहित नदी महापद्म द्रह के दक्षिण तरफ के तोरण से निकल कर १६०५ योजन से कुछ अधिक (पांच कला) दक्षिण दिशा के पर्वत के ऊपर जा कर (बह कर) हार के आकार में कुछ अधिक २०० योजन प्रमाण वाले मगर (मत्स्य) के पडनाल रूप प्रपात-प्रवाह से महाहिमवान् पर्वत के रोहित नामक कुण्ड में गिरती है। मगर के मुख की जीभ १ योजन लम्बी १२॥ योजन चौडी और १ योजन जाडी है तथा रोहित प्रपात कुंड में से दक्षिण दिशा के तोरण द्वार से निकल कर हैमवत क्षेत्र के मध्य भाग में रहे हुए शब्दापाती नामक वृत्त वैताढय पर्वत से दो कोस दूर रह कर २८००० नदियों को साथ मिला कर जगती (कोट) के नीचे भूमि को भेद कर पूर्व दिशा से लवण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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