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________________ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध यह अशनादिक आहार हमारे लिए ज्यादा है अतः इसका आप उपभोग कीजिये ।" इस प्रकार कहने पर वे मुनि कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! इस आहार में से हम जितना खा सकेंगे उतना उपभोग कर लेंगे। अथवा हम यह पूरा आहार खा-पी सकेंगे तो हम सारा काम में ले लेंगे। अन्यथा बचा हुआ आहार आपको वापिस दे देंगे। विवेचन प्रस्तुत सूत्र पाठ से स्पष्ट होता है कि बचा हुआ आहार समान धर्मी, समान आचार विचार वाले और सांभोगिक साधु को ही देने का विधान है, अन्य को नहीं । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा परं समुद्दिस्स बहिया णीहडं तं परेहिं असमणुण्णायं अणिसि अफासुयं जाव णो पडिग्गाहिज्जा तं परेहिं समणुण्णायं संणिसिट्ठ फासुर्य लाभे संते जाव पडिगाहिज्जा ॥ ८६ - एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥ ५५ ॥ ॥ णवमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - णीहडं निकाला गया है, असमणुण्णायं - अनुज्ञा - अनुमति नहीं दी है, अणिसिद्धं - सौंपा नहीं गया है- आहार को समर्पित नहीं किया है, परेहिं - गृहस्थों ने । भावार्थ - भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुए साधु या साध्वी यह जाने कि गृहस्थ ने यह आहार अन्य भाट आदि को उद्देश करके बनाया है, उस आहार को किसी नौकर आदि के साथ उसके घर भेज रहा है। यदि वह नौकर बीच में ही वह आहार साधु साध्वी को देने लगे तो साधु साध्वी उसे ग्रहण न करे क्योंकि गृहस्थ ने उस नौकर को ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि तुम्हारी इच्छानुसार तुम इस आहार को किसी साधु साध्वी या अन्य किसी को दे सकते हो तथा जिसके लिये भेजा है उसको समर्पित नहीं किया है तथा उसको स्वीकार भी नहीं किया है तब तक उस आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर ग्रहण नहीं करे। किन्तु जिसके लिये भेजा है, नौकर ने ले जाकर उसे दे दिया है और उसने स्वीकार कर लिया है यदि उस आहार में से वह दाता देता है तो उसे प्रासुक और एषणीय समझकर साधु साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं। यही संयमशील साधु साध्वी का सम्पूर्ण आचार है । Jain Education International - ।। प्रथम अध्ययन का नववां उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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