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अध्ययन १ उद्देशक ९
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विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु साध्वी पानी को भी आहार की : तरह अनासक्त भाव से ग्रहण करे। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ५ उद्देशक १ गाथा ७५ से ८१ तक में बताया गया है कि मधुर या खट्टा जैसा भी प्रासुक पानी आ जाय साधु को बिना खेद उसे ग्रहण कर लेना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया तेसिं अणालोइय अणामंतिय परिट्ठवेइ, माइट्ठाणं संफासे। णो एवं करिजा - से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा गच्छित्ता से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसंतो समणा ! इमे मे असणं वा पाणं वा खाइमं वा, साइमं वा बहुपरियावण्णं तं भुंजह णं से सेव वयंतं परो वइजा-आउसंतो समणा! आहारमेयं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा जावइयं जावइयं सरइ तावइयं तावइयं भोक्खामो वा पाहामो वा सव्वमेयं परिसडइ सव्वमेयं भोक्खामो वा पाहामो वा॥५४॥ - कठिन शब्दार्थ - परियावण्णं - प्राप्त हुए, बहु - बहुत, भोयणजायं - भोजन जात, साहम्मिया - साधर्मिक (समान धर्मी), संभोइया - सांभोगिक, समणुण्णा - समनोज्ञअपने समान मूलोत्तर गुणों के धारक-समान आचार वाले, अपरिहारिया - अपारिहारिकशुद्ध आचार वाले हैं, 'अदूरगया - दूर नहीं गये हुए अर्थात् नजदीक में, अणालोइय - दिखाये बिना, अणामंतिय - निमंत्रित किये बिना, जावइयं - जितना, तावइयं - उतना, सरइ - उपभोग कर सकेंगे, भोक्खामो - खा लेंगे, पाहामो - पी लेंगे, परिसडइ- खाया जा सकेगा।
भावार्थ - साधु या साध्वी प्राप्त हुए बहुत से अशनादि को ग्रहण करके लाये हैं और वह अपनी आवश्यकता से अधिक हो गया है अर्थात् नहीं खाया जा सका है तो साधर्मिक समान धर्मी समान आचार वाले या सांभोगिक साधु वहीं नजदीक विराजते हो तो उनको बिना पूछे, बिना आहार बताये और बिना आमंत्रित किये मुनि उस बढ़े हुए (शेष) आहार को परठ दे तो, मातृ स्थान का स्पर्श करता है अर्थात् साधु आचार का उल्लंघन करता है। अतएव साधु ऐसा न करे किन्तु बचे हुए आहार को लेकर उन साधर्मिक मुनियों के पास जाये और जाकर पहले उस आहार को दिखाकर इस प्रकार कहे कि "हे आयुष्मन् श्रमणो!
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