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अध्ययन १ उद्देशक १०
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प्रथम अध्ययन का दसवां उद्देशक
से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहित्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलयइ, माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करिज्जा। से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा तत्थ गच्छित्ता एवं वइजा - "आउसंतो समणा! संति मम पुरेसंथुया वा, पच्छा संथुया वा, तं जहा-आयरिए वा, उवज्झाए वा, पवित्ती वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा, गणावच्छेइए वा अवियाइं एएसिंखद्धं खलु दाहामि" से सेवं वयंतं परो वएज्जा - कामं खलु आउसो! अहापज्जत्तं णिसिराहि जावइयं जावइयं परो वयइ तावइयं तावइयं णिसिरिज्जा, सव्वमेयं परो वयइ सव्वमेयं णिसिरिज्जा॥ ___कठिन शब्दार्थ - साहारणं - साधारण, पुरेसंथुया - पूर्व परिचित-जिनके पास दीक्षा ग्रहण की हो, पच्छासंथुया - पश्चात् परिचित-जिनके पास ज्ञानादि सीखा हो, पवित्ती - प्रवर्तक, थेरे - स्थविर, गणी - गणी, गणहरे - गणधर, गणावच्छेइए - गणावच्छेदक, अवियाई - ओर भी इत्यादि, दाहामि- देता हूँ, अहापजत्तं - यथा पर्याप्त, णिसिराहि - दे दो, णिसिरिज्जा - दे दे। .. भावार्थ - कोई साधु समस्त मुनियों के लिए साधारण अर्थात् सम्मिलित आहार लाया हो परन्तु उन सब को पूछे बिना अपनी इच्छानुसार जिसे जैसा चाहे उसे वैसा आहार शीघ्र शीघ्र दे देता हैं तो वह मातृ स्थान का स्पर्श करता है अर्थात् साधु आचार का उल्लंघन करता है। अतः साधु को ऐसा नहीं करना चाहिये किन्तु ऐसे आहार को लेकर अपने गुरुजन आदि समस्त मुनियों के पास जाकर इस प्रकार कहे कि - "हे आयुष्मन् श्रमणो! मेरे पूर्व परिचित या पश्चात् परिचित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक आदि को आपकी आज्ञा हो तो मैं उनको उत्तम और पर्याप्त आहार दे दूं?" ऐसा सुनकर वे उस साधु से इस प्रकार कहे कि-हे आयुष्मन् श्रमण! जितना उन्हें आवश्यक हो उतना आहार दे दो। अगर वे सारा आहार देने की आज्ञा दें तो सारा आहार उनको दे दें।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को प्रत्येक कार्य आचार्य आदि की आज्ञा से करना चाहिये। उन्हें बिना बताए या उन्हें बिना पूछे न तो स्वयं आहार करना
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