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अध्ययन १ उद्देशक ५
४५ 00000000000000000000000000*************************** बांटते हुए को, परिभुंजमाणं - खाते हुए को, परिठविजमाणं - परिष्ठापन करते, फैकते हुए को, पुरा असिणाइ - पहले खा गये हों, अवहाराइ - प्राप्त कर रहे हों, खद्धं खद्धं - जल्दी-जल्दी, उवसंकमंति-आ रहे हों। . भावार्थ - साधु या साध्वी भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होकर ऐसा जाने किगृहस्थ के यहाँ तैयार हुए भोजन में से प्रारंभ में थोड़ा सा आहार देवता आदि के निमित्त निकाला हुआ ऐसे अग्रपिंड नाम के आहार को निकालते हुए, अन्य स्थान पर रखते हुए, ले जाते हुए, बांटते हुए, खाते हुए, इधर-उधर फेंकते हुए को देखकर तथा पहले श्रमणादि खा गए हैं, ग्रहण करके चले गए हैं या ऐसे अग्रपिंड को प्राप्त करने के लिए जल्दी-जल्दी जा रहे हों ऐसा देखकर कोई साधु सोचे कि उस आहार को प्राप्त करने के लिए मैं भी जल्दीजल्दी जाऊँ तो वह दोषी बनता है, माया कपट का सेवन करता है अतः साधु को ऐसा विचार नहीं करना चाहिये।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए अग्र पिण्ड ग्रहण करने का निषेध किया गया है। भोजन तैयार हो जाने के बाद उसमें से कुछ हिस्सा पहले देवता, गाय, कुत्ते या कौएँ आदि के निमित्त से निकाला जाता हो, उसे 'अग्रपिंड' कहते हैं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमिज्जा णो उज्जुयंगच्छिज्जा। केवली बूया-आयाणमेयं॥
कठिन शब्दार्थ - वप्पाणि - टीला-ऊंचा नीचा भू भाग अथवा बीज बोने के लिए . खेत में क्यारियाँ बनी हुई हो, फलिहाणि - खाई, पागाराणि - परकोट, तोरणाणि -
तोरण, अग्गलाणि - अर्गला, अग्गलपासगाणि वा - अर्गलपाशक-आगल रखने का स्थान, सइ परक्कमे - अन्य मार्ग के होने पर, परिक्कमिजा-जावे, उज्जुयं-सीधे मार्ग से।
भावार्थ - साधु या साध्वी को भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में जाते समय मार्ग में ऊंचा नीचा भू भाग, खाई, परकोट, तोरण, अर्गला और अर्गलपाशक पड़ा हो तो दूसरा मार्ग होने पर साधु उस मार्ग से न जाए भले ही वह सीधा क्यों न हो, क्योंकि ऐसे मार्ग से जाने में गिरने, फिसलने या टकराने की संभावना रहती है और केवली भगवान् ने इसे कर्म बंध का कारण कहा है।
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