________________
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ••••s................................desi.0000000000000 किया गया है। प्रस्तुत सूत्र. पाठ में आये हुए "भिक्खागा" शब्द से केवल भिक्षा से ही निर्वाह करने वाले गुण रहित साधु को बताया गया है। ये कदाचित् ऐसे पदार्थ ग्रहण भी कर सकते हैं परन्तु संयम निष्ठ मुनियों को तो ये पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिये। आगम में मांस के लिए तो एकान्त निषेध किया गया है किन्तु मद्य का एकान्त निषेध नहीं है। ज्ञातासूत्र अध्ययन ५ में आये हुए 'मजपाणगं' शब्द से आसव, अरिष्ट आदि औषधियों को ग्रहण करना बताया है। निशीथ सूत्र के १९ वें अध्ययन में आये हुए 'वियड' शब्द से भी औषधि आदि में इन द्रव्यों को लेने संबंधी कथन है। परिमाण से अधिक एवं निष्कारण लेने का वहाँ पर प्रायश्चित्त बताया है। ये वस्तुएं मद्य के ही रूपान्तर गिने जाते हैं। प्रसिद्ध मद्य आदि का तो वर्जन ही समझा जाता है। मधु (शहद) को तो औषधि के रूप में लेने की आगम में विधि बताई है। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥२४॥
॥चेउत्थो उद्देसो समत्तो॥ भावार्थ - यही संयम शील साधु साध्वियों का आचार है।
॥ प्रथम अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
प्रथम अध्ययन का पांचवां उद्देशक से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जाअग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंडं णिक्खिप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिभाइज्जमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिभुंजमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिट्ठविजमाणं पेहाए पुरा असिणाइ वा, अवहाराइ वा, पुरा जत्थ अण्णे समणमाहण-अतिहि-किवण वणीमगा खद्धं खद्धं उवसंकमंति से हंता अहमवि खद्धं खद्धं उवसंकमामि माइट्ठाणं संफासे णो एवं करिजा॥२५॥ .. कठिन शब्दार्थ - अग्गपिंडं - अग्रपिंड को, उक्खिप्पमाणं - निकालते हुए को, णिक्खिप्पमाणं- अन्य स्थान पर रखते हुए को, हीरमाणं - ले जाते हुए को, परिभाइज्जमाणं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org