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________________ ३२ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम आक्रान्त, हत्येण वा हत्थे - हाथ से हाथ, संचालियपुव्वे भवइ - संचालन होता है, पाएण वा पाए - पात्र से पात्र, आवडियपुव्वे भवइ - घर्षण (टक्कर) होता है, सीसेण व सीसे - सिर से सिर का, संघट्टियपुव्वे - प्रथम संघट्टा होना, काएण वा काए - शरीर से शरीर का, संखोभियपुव्वे- प्रथम संक्षोभ होना, दंडेण- डंडे से, अट्ठिणा - अस्थि से, मुट्ठिणा - मुष्टि से, लेलुणा - ढेले से, कवालेण - फूटे ठीकरे से, अभिहयपुव्वे - प्रथम अभिहत होना, सीओदएण - शीतोदक-शीतल जल से (सचित्त पानी से) उस्सित्तपुव्वेप्रथम फेंकना, रयसा - रज से-सचित्त मिट्टी से, परिघासियपुव्वे - प्रथम परिघर्षित करना, अणेसणिजे- अनेषणीय, परिभुत्तपुव्वे - प्रथम ग्रहण करना, अण्णेसिं.वा दिजमाणेअन्य को देते हुए दाता से, पडिग्गाहियपुव्वे - बीच में ही पहले ग्रहण कर लेगा। . भावार्थ - जिस जीमनवार में बहुत लोग एकत्रित हुए हों और भोजन कम मात्रा में बनाया हुआ हो वहाँ यदि साधु साध्वी जाये तो भीड़भाड़ में उनके पैर अन्य व्यक्तियों के पैरों तले दब सकते हैं, हाथ से हाथ का संचालन हो सकता है, पात्र से पात्र का संघर्षण हो सकता है, सिर से सिर और शरीर से शरीर का संघटन हो सकता है, क्षोभ हो सकता है। ऐसी भीड़ में कदाचित् साधु को लकड़ी, अस्थि, मुष्टि, पत्थर, मिट्टी के ढेले आदि के प्रहार को भी सहन करना पड़ सकता है। कोई मुनि के शरीर पर शीतल जल फैंक सकता है या सचित्त जल से संघट्टा हो सकता है, इसके अतिरिक्त एक दूसरे पर सचित्त मिट्टी भी फैंक सकते हैं अथवा याचकों की अधिक संख्या होने से साधु को अनेषणीय आहार ग्रहण करने की सम्भावना रह सकती है या अन्य को दिये जाने वाले आहार को बीच में ही ग्रहण करने का प्रसङ्ग बन सकता है। इस तरह वहाँ जाने में अनेकों दोष संभव है। अतः संयमवान् निर्ग्रन्थ साधु इस प्रकार की भीडवाली और जहाँ थोड़े व्यक्तियों के लिए भोजन बना हो एवं बहुत से व्यक्ति जा पहुँचे हो ऐसी संखडी में जाने का विचार भी न करे। विवेचन - संखडी दो तरह की होती है - १. आकीर्ण-परिव्राजक आदि भिक्षुओं से व्याप्त संखडी और २. अवम अर्थात जिसमें भोजन थोड़ा बना हो और भिक्षु अधिक आ गये हों, ऐसी हीन संखडी। ऐसी संखडी में जाने से भीड अधिक होने के कारण धक्का मुक्की और परस्पर संघर्ष होने की संभावना रहती है। परस्पर वाक् युद्ध एवं मुष्टि तथा दण्ड आदि का प्रहार भी हो सकता है। इस तरह संखडी में जाना संयम घातक है अतः साधु को उस ओर आहार आदि के लिये नहीं जाना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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