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अध्ययन १ उद्देशक ३
घरों में निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करते हुए संयम साधना में रत रहना चाहिये । शुद्ध भिक्षाचरी के लिये मूल पाठ में प्रयुक्त तीन शब्दों का अर्थ इस प्रकार है -
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९. सामुदाणियं - सामुदानिकं गोचरी अर्थात् छोटे बड़े या अमीर-गरीब के भेद को भुला कर अनिंदनीय कुलों से निर्दोष आहारादि ग्रहण करना ।
२. एसियं - एषणीय - आधाकर्म आदि १६ उद्गम के दोषों से रहित ।
३. वेसियं - वैषिक यानी धात्री आदि उत्पादना के १६ दोषों से रहित । 'वेसिय' शब्द के दो रूप बनते हैं। वैषिक अर्थात् वेष आदि बाह्य लिंग से प्राप्त हुआ और व्येषित अर्थात् विशेष एषणा से शुद्ध कर लिया हुआ ।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडी सिया तं पिय गामं वा जाव रायहाणिं वा संखडी संखडिपडियाए णो अभिसंधारिज्जा गमणाए । केवली बूया - - आयाणमेयं ॥
भावार्थ - जिस गांव में या राजधानी में संखडी हो, वहां साधु अथवा साध्वी उस ग्राम या राजधानी में होने वाली संखडी में संखडी की प्रतिज्ञा से जाने का विचार न करे क्योंकि केवली भगवान् ने फरमाया है कि ऐसा करने से कर्म बंध होता है ।
आइण्णोवमाणं संखडिं अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अक्कंतपुव्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालिय पुव्वे भवइ, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टिय पुव्वे भवइ, कारण वा काए संखोभियपुव्वे भवइ, दंडेण वा, अट्ठिणा वा, मुट्ठिणा वा, लेलुणा वा, कवालेण वा, अभिहयपुव्वे भवइ, सीओदएण वा उस्सित्त पुव्वे भवइ, रयसा वा परिघासिय पुव्वे भवइ, असणिजे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ अण्णेसिं वा दिज्जमाणे पडिग्गाहिय पुव्वे भवइ, तम्हा से संजए णिग्गंथे (णियंठे ) तहप्पगारं आइण्णोवमाणं संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारिज्जा गमणाए ॥ १७॥
अवम-हीन,
कठिन शब्दार्थ आकीर्ण- अधिक भीड़ वाली, अवमा आइण्ण अणुपविस्समाणस्स - प्रवेश करते हुए के, पाएण वा पाए पैर से पैर अक्कंतपु
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