________________
३०
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
और अनेक दोष लगने की संभावना है। अत: संयमवान् निर्ग्रन्थ मुनि पूर्व संखडी या पश्चात् संखडी में जाने का विचार भी न करे।
विवेचन - आत्म पतन होने की संभावना के कारण भगवान् ने संखडी में जाने का निषेध किया है और इसे कर्म बन्धन का स्थान कहा है। अतः साधु को संखडी के स्थान की ओर भी नहीं जाना चाहिये। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं -
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णयरि संखडिं सोच्चा णिसम्म संपहावई उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी णो संचाएइ तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइट्टाणं संफासे णो एवं करिजा। से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिजा॥१६॥ __कठिन शब्दार्थ - अण्णयरि - अन्यतर-किसी एक स्थान पर, सोच्चा - सुनकर, णिसम्म- निश्चित कर-विचार कर, उस्सुयभूएण - उत्सुकता से, संपहावइ - जाता है, धुवा - निश्चित, इयरेयरेहिं- इतर-इतर-भिन्न-भिन्न, कुलेहिं - कुलों से, सामुदाणियं - सामुदानिक-बहुत से घरों का, एसियं - एषणीय वेसियं - साधु वेश द्वारा प्राप्त किया गयाउत्पादना के दोषों से रहित, पिंडवायं-आहार को, णो संचाएइ-समर्थ नहीं होगा, माइट्ठाणंमातृ स्थान का, संफासे- स्पर्श।
- भावार्थ - जो कोई साधु या साध्वी पूर्व संखडी या पश्चात् संखडी का होना सुनकर निश्चय कर उत्सुकता पूर्वक वहाँ जाता है। "वहाँ तो निश्चित जीमनवार हैं" ऐसा सोचकर वहाँ गया हुआ साधु उद्गम और उत्पादना आदि के दोषों से रहित भिन्न-भिन्न कुलों से प्रासुक और एषणीय निर्दोष आहार ग्रहण कर भोगने में समर्थ नहीं होगा, किन्तु वहीं से सदोष भिक्षा (दूषित आहार) ग्रहण कर दोषी बनेगा। वहाँ मातृ स्थान (कपट) का स्पर्श होता है अर्थात् संयम मार्ग का उल्लंघन होता है। अतः साधु ऐसा कार्य न करे। वह ऐसे ग्राम में प्रवेश करके भी भिक्षा के समय भिन्न-भिन्न कुलों से सामुदानिक भिक्षा द्वारा, उद्गम उत्पादना आदि के दोषों से रहित (निर्दोष) आहार प्राप्त करके उसका उपभोग करे परन्तु संखडी में जाने का विचार न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधु साध्वी को संखडी को छोड़ कर अन्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org