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________________ ३२९ तथा उनके द्वारा किये हुए, प्रतिसेवित प्रकट एवं गुप्त सभी कार्यों को तथा उनके द्वारा बोले हुए, कहे हुए और मन के भावों को जानने और देखने लगे। वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सब जीवों वे समस्त भावों को तथा समस्त परमाणु पुद्गलों को जानते और देखते हुए विचरण करने लगे । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में केवलज्ञान, केवलदर्शन संपन्न आत्मा को अर्हन्त, जिन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहा है । केवलज्ञान का अर्थ है वह ज्ञान जो पदार्थों की जानकारी के लिए पूर्ववर्ती मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यव ज्ञान में से किसी की अपेक्षा नहीं रखता है वह केवल अर्थात् अकेला ही रहता है और किसी अन्य ज्ञान की सहायता के बिना ही समस्त पदार्थों के समस्त भावों को जानता है । केवली को प्रथम समय में ज्ञान होता है और दूसरे समय में दर्शन होता है। अतः पहले सर्वज्ञ शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि छद्मस्थ को प्रथम समय में दर्शन और द्वितीय समय में ज्ञान होता है । प्रश्न चार घाती कर्मों में क्षय होने का क्या क्रम है ? अध्ययन १५ - उत्तर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घाती कर्म कहलाते हैं। इनमें से सर्व प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है। मोहनीय कर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मों का एक साथ क्षय हो जाता है । .. प्रश्न - जब मोहनीय कर्म के क्षय होते ही, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय इन दोनों कर्मों का एक साथ क्षय हो जाता है तो क्रमानुसार 'सव्वण्णू सव्वदरिसी' पाठ दिया है, इसमें ज्ञान की प्रथमता बतलाई गयी है तो दर्शन की प्रथमता बतलाने वाला "सव्वदरिसी सव्वण्णू" ऐसा पाठ भी कहीं मिलता है ?. - Jain Education International उत्तर - "सव्वदरिसी सव्वण्णू" ऐसा पाठ कहीं पर भी नहीं मिलता है। प्रश्न - ऐसा पाठ नहीं मिलने का क्या कारण है ? उत्तर - प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक होती है अर्थात् प्रत्येक वस्तु सामान्य और विशेष ये दो धर्म पाये जाते हैं तदनुसार छद्मस्थ व्यक्ति सामान्य धर्म को पहले जानता है और विशेष धर्म को पीछे जानता है । परन्तु केवलज्ञान के विषय में यह नियम लागू नहीं होता है। केवल ज्ञान पहले वस्तु के विशेष धर्म को जानता है और सामान्य धर्म को पीछे जानता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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