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__ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .....................rrerroriterrrrrrrrrrrrrr......
सिद्धत्थवणं व जहा, कणियार वणं व चंपयवणं वा। .. सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणयलं सुरगणेहिं॥९॥ वर पडह भेरी ज्झल्लरि संख सयसहस्सिएहिं तूरेहिं। गगणयले धरणीयले तूरणिणाओ परमरम्मो॥१०॥ तत वितयं घण झूसिरं आउजं चउव्विहं बहुविहीयं। वायंति तत्थ देवा, बहुहिं आणट्टगसएहिं॥११॥
कठिन शब्दार्थ - साहट्टरोमकूवेहिं - जिनके रोम कूप हर्ष से विकसित हो रहे थे, वहंति - उठाते हैं, गगणयलं - गगन तल-आकाश मंडल, धरणीयले - धरणीतल-पृथ्वी, . आणट्टगसएहिं - सैंकड़ों नाटकों सहित, तूरणिणाओ - बाजाओं का शब्द। ..
भावार्थ - पहले उन मनुष्यों ने उल्लासवश वह शिविका उठाई, जिनके रोम कूप हर्ष से विकसित हो रहे थे। उसके पश्चात् सुर, असुर, गरुड और नागेन्द्र आदि देव उसे उठा कर चलने लगे॥६॥
शिविका को पूर्व दिशा में सुर-वैमानिक देव, दक्षिण दिशा से असुरकुमार देव, पश्चिम दिशा से गरुडदेव और उत्तर दिशा से नागकुमार देव उठाकर चलते हैं ॥ ७॥
'उस समय देवों के आवागमन से आकाशमंडल वैसा ही सुशोभित हो रहा था जैसे खिले हुए पुष्पों से उद्यान या शरद् ऋतु में कमलों के समूह से पद्म सरोवर सुशोभित होता है॥ ८॥
जैसे सरसों, कचनार (कनेर) या चम्पक वन फूलों से सुहावना प्रतीत होता है वैसे ही देवों के आवागमन से गगन तल (आकाश मण्डल) सुहावना लग रहा था॥ ९॥
उस समय उत्तम ढोल, भेरी, झांझ (झालर) शंख आदि सैंकड़ों वाद्यों (वादिन्त्रों) से गुंजायमान आकाश एवं भूभाग बडा ही मनोहर एवं रमणीय प्रतीत हो रहा था॥१०॥
वहीं पर देव गण बहुत से नृत्यों और नाटकों के साथ अनेक तरह के तत, वितत, घन और शूषिर यों चार प्रकार के बाजे बजा रहे थे॥११॥
विवेचन - उपरोक्त गाथाओं में यह बात प्रकट की गयी है कि राजकुमार वर्धमान (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी) देव निर्मित सहस्र वाहिनी (हजार पुरुष उठावे वैसी) पालकी में विराजमान हुए। उस पालकी को सबसे पहले मनुष्यों ने उठाया इसके बाद देवों
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