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________________ ३१० . __ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध witterritor.orretterstooritersorroristirror.stori. जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंणिवेसे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए तेणेव झतिवेगेण ओवइया॥ कठिन शब्दार्थ - सएहिं - अपने, णेवत्थेहिं - नैपत्थ्य-वस्त्रों से, चिंधेहिं - चिह्नों से युक्त, सव्विड्डीए - सर्व ऋद्धि से, सव्वजुईए - सर्वधुति (ज्योति) से, सव्वबल समुदएणंसर्व बल समुदाय से, दुरुहंति - चढते हैं, अहाबायराई - यथा बादर, परियाइंति - ग्रहण करते हैं, उप्पयंति - उत्पतन करते हैं, सिग्याए - शीघ्र, चवलाए - चपल, तुरियाए - त्वरित, दिव्वाए- दिव्य, देवगईए - देव गति से, ओवयमाणा - उतरते हुए, वीइक्कममाणाव्यतिक्रम करते हुए-उल्लंघन करते हुए, उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंणिवेसे - उत्तर क्षत्रिय कुंडपुर सन्निवेश। भावार्थ - तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के दीक्षा लेने के अभिप्राय को जान कर भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देव देवियाँ अपने अपने रूप में, अपने अपने वस्त्रों में और अपने अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति और समस्त बल समुदाय सहित अपने अपने यान विमानों पर चढते हैं और उनमें चढकर बादर (स्थूल) पुद्गलों को पृथक् करते हैं। बादर पुद्गलों को पृथक् करके सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करके वे ऊँचे उडते हैं। ऊँचे उड कर अपनी उस उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य देव गति से नीचे उतरते उतरते क्रमशः तिर्यक् लोक में स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करते हुए जहाँ पर जंबूद्वीप नामक द्वीप है वहाँ आते हैं। वहाँ आकर जहाँ उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश है उसके निकट आते हैं। वहाँ आकर उत्तरक्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश के ईशानकोण दिशा भाग में शीघ्रता से उतरते हैं। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् के दीक्षा ग्रहण करने के अभिप्राय को जान कर उनके संयम की सराहना करने हेतु चारों प्रकार के देव देवियों के आगमन का वर्णन है। . देव देवी अपने मूल रूप से मनुष्य लोक में नहीं आते हैं वे उत्तर वैक्रिय करके ही मनुष्य लोक में आते हैं। उत्तर वैक्रिय में भी वे विशिष्ट रत्नों के सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। प्रश्न - तीर्थङ्कर भगवान् के दीक्षा समारोह में भाग लेने के लिए देव देवी इतनी शीघ्रता से क्यों आते हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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