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________________ अध्ययन १३ २८३ •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• साधक को ऐसा जानकर समभावों से दुःखों को सहन करते हुए साधना में लीन रहना चाहिए। जैसा कि कहा है - पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवायं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम्। इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक्, सदसदिति विवेको अन्यत्र भूयः कुतस्ते?॥ अर्थात् - ज्ञानी फरमाते हैं कि हे साधक! तुझे जो दुःख प्राप्त हुआ है उसे समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए क्योंकि बन्धे हुए कर्म समय पर अपना फल देते ही हैं। फल दिये बिना नष्ट नहीं होते हैं। ये सब कर्म तेरे ही किये हुए हैं। इन सबका कर्ता तू ही है इसलिये उन कर्मों के फल स्वरूप प्राप्त होने वाले सुख दुःख को तुझे समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए क्योंकि सत्-असत् का जैसा विवेक तुझे इस मनुष्य भव में मिला है, दूसरी गतियों में ऐसा विवेक मिलना सम्भव नहीं है इसलिये विवेक पूर्वक तुझे वेदना को समभाव से सहन करना चाहिए। क्योंकि किये हुए कर्मों का फल पहले या पीछे तुझे ही भोगना पडेगां। . . . श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से इस प्रकार कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥छठी सप्तिका पूर्ण॥ " ए ॐ परक्रिया सप्तक नामक तेरहवां अध्ययन समाप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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