SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम सप्तिका अन्योन्यक्रिया नामक चौदहवां अध्ययन सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णमण्णकिरियं अज्झत्थियं संसेइयं णो तं सायणो तं णियमे । सिया से अण्णमण्णं पाए आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा णो तं सायए णो तं यि | सेसं तं चैव । एवं खलु भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जइज्जासि त्ति बेमि ॥ १७४॥ ॥ चउद्दसमं अज्झयणं समत्तं ॥ भावार्थ - साधु या साध्वी की निष्प्रयोजन अन्योन्य क्रिया- परस्पर की जाने वाली पादप्रर्माजन आदि क्रिया कर्म बंधन की जननी है, अतः साधु या साध्वी इसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से ही उसे कराए। कदाचित् साधु या साध्वी परस्पर एक दूसरे के पैरों को कारण के बिना एक बार पोंछ कर या बार-बार पोंछ कर साफ करे तो इसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से कराए। शेष वर्णन तेरहवें अध्ययन में प्रतिपादित पाठों के समान समझना चाहिये । यह साधु साध्वी का समग्र आचार है जिसके पालन में वह ज्ञानादि एवं पांच समितियों से युक्त होकर सदैव प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में पारस्परिक क्रिया का निषेध किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि बिना कारण से एक साधु दूसरे साधु से अथवा एक साध्वी दूसरी साध्वी से बिना शारीरिक कारण के परस्पर पैर दबाने, मालिश आदि करने की क्रिया न करावे । इसका यह अर्थ नहीं है कि साधु साध्वी को बीमार साधु साध्वी की सेवा शुश्रूषा एवं वैयावृत्य के लिए निषेध किया गया है । आगमकार का उद्देश्य साधु को स्वावलंबी बनाने का है उसके जीवन में आलस्य एवं प्रमाद न आए और वह आरामतलब हो कर दूसरों पर आधारित न रहे, इस दृष्टि से ही निष्कारण पारस्परिक क्रिया करने का निषेध किया गया है । . श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से इस प्रकार कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ अपनी बुद्धि से कुछ नहीं कहता हूँ । ॥ सातवीं सप्तिका संपूर्ण ॥ अन्योन्य क्रिया नामक चौदहवां अध्ययन समाप्त ॥ Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy