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. आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •••rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrore
सिया से परो सुद्देणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे सिया से परो असुद्धेणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे, सिया से परो गिलाणस्स सचित्ताणि कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु वा कड्डित्तु वा कड्डावित्तु वा तेइच्छं आउट्टाविज्जा णो तं सायए णो तं णियमे। कडुवेयणा पाणभूयजीवसत्ता वेयणं वेइंति। .
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणी वा सामग्गियं जं सव्वटेहिं सहिए समिए सया जए सेयमिणं मण्णिजासि त्ति बेमि॥१७३॥
॥तेरहमं अज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - सुदेणं - शुद्ध, वइबलेणं - वचन बल-मंत्रादि के बल से, तेइच्छं - चिकित्सा, खणित्तु - खोद कर, कड्डित्तु - निकाल कर, कडुवेयणा - कटुक वेदना, सेयं - कल्याणकारी।
भावार्थ - यदि कोई गृहस्थ शुद्ध वचन बल (मंत्र बल) से अथवा अशुद्ध वचन बल से साधु साध्वी की चिकित्सा करनी चाहे अथवा वह गृहस्थ किसी रोगी साधु साध्वी की चिकित्सा सचित्त कंद, मूल, छाल या हरी वनस्पति को खोद कर या बाहर निकाल कर या निकलवा कर चिकित्सा करनी चाहे तो साधु साध्वी उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से कराए।
यदि साधु साध्वी के शरीर में कठोर वेदना हो तो यह विचार कर उसे समभाव से सहन करे कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अपने कृत अशुभ कर्मों के अनुसार कटुक वेदना का अनुभव करते हैं। __यह साधु साध्वी का समग्र आचार है जिसके लिये सभी अर्थों से युक्त ज्ञानादि सहित और समितियों से समित होकर सदा प्रयत्नशील रहे और इसी को. अपने लिये श्रेयस्कर माने-ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ द्वारा विविध प्रकार से की जाने वाली परिचर्या का मन वचन और काया से त्याग का निरूपण किया गया है। ___ पर क्रिया के समान ही अन्योन्य क्रिया (साधुओं साध्वियों की पारस्परिक क्रिया) का भी निषेध किया गया है।
पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कारण ही जीव असाता-दुःख का अनुभव करता है अतः
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