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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
जाते हैं। टीका में इनका विस्तृत वर्णन किया है। अणलं, अथिर, अधुवं और अधारणिजं इन चार पदों के १६ भंग बनते हैं उनमें १५ भंग अशुद्ध माने गये हैं और अंतिम भंग शुद्ध माना गया है। कुछ प्रतियों में 'रोइज्जतं' के स्थान पर 'देइजंतं' और कुछ प्रतियों में 'चइजंतं' पाठ भी मिलता है।
प्रस्तुत सूत्र में आये हुए "रोइजंतं ण रुच्चइ" का आशय इस प्रकार है - रुचि की जाने पर भी रुचि नहीं होती है अथवा इस प्रकार उपर्युक्त चारों (अलं, थिरं, धुवं, धारणिजं) विशेषताओं से युक्त प्रशस्त वस्त्र रुचि कर एवं देय होने पर भी दाता की रुचि न हो अथवा साधु को लेना पसंद या कल्पनीय न हो। . ..
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णो णवए मे वत्थे त्ति कट्ट णो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पघंसिज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णो णवए मे वत्थे त्ति कट्ट णो बहुदेसिएण सीओदग वियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा जाव पहोइज्जा॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा दुब्भिगंधे मे वत्थेत्ति कट्ट णो बहुदेसिएण सिणाणेण वा तहेव सीओदग वियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा आलावओ॥ १४७॥
कठिन शब्दार्थ - णवए - नवीन।
भावार्थ - "मेरे पास नवीन वस्त्र नहीं है" ऐसा विचार कर साधु साध्वी पुराने वस्त्र को सुगंधित द्रव्य आदि से आधर्षित-प्रघर्षित नहीं करे और शीतल जल से या उष्ण जल से धोने का भी प्रयत्न नहीं करे। इसी प्रकार दुर्गन्ध युक्त वस्त्र को भी सुगंधित करने की दृष्टि से जल आदि से नहीं धोवे। यह आलापक भी पूर्ववत् ही है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विभूषा के लिए साधु-साध्वी को वस्त्रादि धोने एवं उन्हें सुगंधित बनाने का निषेध किया गया है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा, तहप्पगार वत्यं णो अणंतरहियाए पुढवीए णो ससिणिद्धाए पुढवीए जाव संताणए आयाविज वा पयाविज वा॥से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा तहप्पगारं वत्थं थूणसि वा गिहेलुयसि वा
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