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________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ 'तुमं चेवणं संतियं वत्थं अंतोअंतेणं पडिलेहिज्जिस्सामि' का आशय इस प्रकार है 'तुम्हारे ही इस वस्त्र को अंदर बाहर चारों ओर से खोलकर भलीभांति देखूँगा ।' अर्थात् मैं प्रतिलेखन करत हूँ तब तक यह वस्त्र तुम्हारे स्वामित्व का या तुम्हारा है । सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणिज्जा सअंडं जाव संताणगं तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुणवत्थं जाणिजा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जंतं ण रुच्चइ तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिग्गाहिज्जा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जतं रुच्चइ तहप्पगारं वत्थं फासूयं जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ २०९ कठिन शब्दार्थ - संताणगं - मकडी के जाले आदि से युक्त, अथिरं अस्थिर, अधुवं - अध्रुव अधारणिजं धारण करने के अयोग्य, रोइज्जतं - रुचि को देख कर, रुच्चइ - रुचता है। भावार्थ - साधु या साध्वी अण्डों से युक्त यावत् मकडी के जाले आदि से युक्त तथाप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। यदि कोई वस्त्र अण्डों और मकड़ी के जालों आदि से रहित है परन्तु अभीष्ट कार्य की सिद्धि में असमर्थ है अस्थिर है या जीर्ण शीर्ण है या गृहस्थ ने उस वस्त्र को थोडे काल के लिए देना स्वीकार किया है, धारण करने के अयोग्य है, दाता उसे देने की पूरी रुचि नहीं रखता है ऐसे वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे । साधु या साध्वी यदि जाने कि यह वस्त्र अण्डों से रहित यावत् मकडी के जालों से रहित, अभीष्ट कार्य करने में समर्थ, स्थिर ध्रुव - जिसकी साधु को सदा के लिए आज्ञा दे दी गई हो, धारण करने के योग्य तथा दाता की देने की रुचि को देख कर साधु के लिए भी कल्पनीय हो तो तथा प्रकार के वस्त्र को प्रासुक और एषणीय जान कर मिलने पर ग्रहण कर सकता है। विवेचन 'अधारणिज्र्ज' पद की व्याख्या करते हुए टीकाकार का कहना है कि लक्षण हीन उपधि को धारण करने से ज्ञान, दर्शन, और चारित्र का उपघात होता है। जो अप्रशस्त हो, खंजन आदि के चिह्न (धब्बे) जिस पर अंकित हो ऐसे वस्त्र 'लक्षणहीन' कहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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