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________________ अध्ययन २ उद्देशक २ १२३ .000000000000000000000rsorron.or..sotrrs.srrrrrrrrrrrr... आदि इस प्रकार के स्थानों में श्रमण ब्राह्मणादि ठहर चुके हैं और बाद में जैन साधु साध्वी ठहरते हैं इसे अभिक्रांत क्रिया कहते हैं। विवेचन - जो स्थान अन्यमत के साधु संन्यासियों के लिए बनाये गये हैं और वे आकर ठहर भी चुके हैं बाद में निर्ग्रन्थ साधु साध्वी आकर ठहरते हैं तो वह अभिक्रान्त शय्या कहलाती है। यह स्थान दोष रहित है इसलिये जैन के साधु साध्वियों के लिए निर्दोष हैं। इसलिए उसमें ठहरने में कोई बाधा नहीं है, यह उनके ठहरने योग्य स्थान है। ४. इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति तं जहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि जाव भवणगिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं ओवयंति अयमाउसो! अणभिक्कंत किरिया यावि भवइ॥८१॥ कठिन शब्दार्थ - अणभिक्कंत किरिया - अनभिक्रान्त क्रिया। भावार्थ - इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में रहने वाले कई धर्म श्रद्धालु होते हैं जो श्रद्धा प्रतीति और रुचि करके श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी आदि के निमित्त से पूर्वोक्त स्थान (मकान) बनाते हैं। ऐसे स्थानों को उन श्रमण ब्राह्मण आदि ने उपभोग में नहीं लिए हैं उनके उपभोग करने से पहले ही जैन साधु-साध्वी ठहरते हैं तो हे आयुष्मन्! वह स्थान अनभिक्रान्त शय्या है। क्योंकि जिन अन्यमतावलम्बी परिव्राजक आदि के लिये बनाया है, वे उनमें आकर अभी ठहरे नहीं है इसलिये ऐसा स्थान जैन साधु साध्वी के लिए अकल्पनीय है। अत: उन्हें अनभिक्रान्त क्रिया लगती है। ५. इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु एएसिं भयंताराणं कप्पइ आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से जाणि इमाणि अम्हं अप्पणो सयट्ठाए चेइयाइं भवंति तंजहा- आएसणाणि वा जाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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