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________________ १२४ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ress.or.krrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr... भवणगिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो अवियाई वयं पच्छा अप्पणो सयट्ठाए चेइस्सामो तंजहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा एयप्पगारं णिग्योसं सुच्चा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वटुंति अयमाउसो! वजकिरिया यावि भवइ॥८२॥ कठिन शब्दार्थ - वत्थए - बसना (रहना), सयट्ठाए - अपने लिए (निज-प्रयोजन से), णिसिरामो- दे देते हैं, पाहुडेहिं - उपहार रूप में प्राप्त, भेंट दिये हुए घरों को, वटुंति - वर्तते हैं (रहते हैं), वज - वर्ण्य, इयराइयरेहिं - इतरा इतरा अर्थात् गृहस्थों के द्वारा दिए हुए छोटे-मोटे। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'इतराइतरेषु उच्चावच्चेसु प्रदतेषु' किया है। ___ भावार्थ - इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में रहने वाले कई धर्म श्रद्धालु होते हैं वो परस्पर इस प्रकार कहते हैं - "जो श्रमण भगवंत मैथुन धर्म से सर्वथा उपरत हैं उनको उन्हीं के निमित्त से बनाये हुए (आधाकर्मिक) उपाश्रयादि में बसना नहीं कल्पता है अतः हमने अपने लिए जो मकान आदि बनाए हैं वे सब मकान हम इन मुनियों को दे देते हैं और हम अपने लिये पुनः नये बना लेंगे।" गृहस्थ के इस प्रकार के शब्द सुनकर और समझ कर जो साधु ऐसे घरों में निवास करते हैं तो हे आयुष्मन्! उन्हें वर्ण्य क्रिया लगती है क्योंकि यह वर्ण्य वसति (शय्या) है। विवेचन - मूल में 'वज' शब्द दिया है जिसकी संस्कृत छाया दो तरह की हो सकती है यथा - 'वर्य' तथा 'वज्र'। वर्ण्य का अर्थ है छोड़ देने योग्य। वज्र का अर्थ है वज्र के समान भारी। यह शब्दों का अर्थ मात्र है। ऐसी वर्ण्य क्रिया अथवा वज्र क्रिया वाले स्थानों में जैन के साधु साध्वी को नहीं उतरना चाहिए क्योंकि यह उनके लिये अकल्पनीय है। ६. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतेगइया सड्ढा भवंति, तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समण माहण अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति तं जहा- आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वटुंति अयमाउसो! महावजकिरिया यावि भवइ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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