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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr....................... उतना मुझे दे दो, गुठली मत दो। ऐसा कहने पर भी गृहस्थ अपने पात्र में से बहुत गुठलियों वाले गूदे को लाकर देने लगे तो वह मुनि उस पदार्थ को गृहस्थ के हाथ या पात्र में ही रहने दे और अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
से आहच्च पडिगाहिए सिया तं णो हि त्ति वइजा, णो अणिहित्ति वइज्जा से तमायाय एगंतमवक्कमिजा एगंतमवक्कमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छगं भुच्चा अट्ठियाई कंटए गहाय से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा एगंतमवक्कमित्ता अहे ज्झामथंडिलंसि वा जाव पमज्जिय पमज्जिय परिविजा॥५८॥
कठिन शब्दार्थ - णो हि त्ति वइज्जा - अच्छा न कहे, णो अणिहित्ति वइज्जा - न ही बुरा कहे।
भावार्थ - कदाचित् अगर कोई गृहस्थ भावुकतावश शीघ्रता से उक्त पदार्थ मुनि के पात्र में डाल दे तो साधु उसे भला-बुरा कुछ भी नहीं कहे किन्तु उस आहार को लेकर एकान्त स्थान में जाये और जाकर उद्यान या उपाश्रय में अंडों से यावत् मकडी के जालों से रहित भूमि देखकर प्रर्माजन कर गूदा फल के खाने योग्य सार भाग और मत्स्य वनस्पति (खाने योग्य पदार्थ) का उपभोग करें और फैंकने योग्य गुठलियों और कांटों को एकान्त स्थान में जाकर और प्रासुक अचित्त भूमि का प्रतिलेखन प्रर्माजन कर के परठ दे।
_ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कंटक आदि को एकान्त स्थान में परठने का विधान किया है इससे यह स्पष्ट होता है कि अस्थि एवं कन्टक आदि फलों में से निकलने वाले बीज (गुठली) या कांटे आदि ही हो सकते हैं। फलों में गुठली ही होती है न कि हड्डी। अतः यहाँ 'अट्ठि' शब्द गुठली के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। अतः स्पष्ट है प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त मांस एवं मत्स्य शब्द वनस्पति वाचक है न कि मांस और मछली के वाचक है। इसलिए उक्त शब्दों के आधार पर जैन मुनियों को मांस मछली खाने वाला कहना नितान्त गलत है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे सिया से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहए बिलं वा लोणं, उब्भियं वा लोणं, परिभाइत्ता णिहट्ट दलइज्जा तहप्पगारं पडिग्गहयं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिजं जाव णो
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